विवेकानंद सिंह जनसत्ता 1 अक्तूबर, 2014: समंदर सभी को प्यासा रख देता है। खजूर और ताड़ के वृक्ष राहगीरों को छांव नहीं दे पाते, मगर ‘यह जिंदगी’ हमें सब कुछ दे सकती है, धूप, छांव, गम, खुशी- न जाने और क्या-क्या! उस दिन सुबह से ही मन थोड़ा बेचैन और दुखी था। तब और बहुत दुखी हो गया, जब खबर सुनी कि नांदेड़ की तरफ जा रही एक पैसेंजर गाड़ी और स्कूल बस की टक्कर से उन्नीस बच्चों की जान चली गई। उन छोटे-छोटे बच्चों की तस्वीरें जब मैंने फेसबुक पर देखीं तो आंखें नम हो गर्इं। उन बच्चों में मुझे अपना बचपन दिख रहा था, जो उस समय तड़प और बिलख रहा था। मैं सोच के सागर में बार-बार डुबकी लगाने की कोशिश करता, लेकिन सागर मुझे हर बार प्यासा ही बाहर निकलने पर मजबूर कर देता। आखिर किसकी गलती रही होगी? कई बार मैंने ऐसे लोगों को देखा है, जो मानवरहित फाटक ही नहीं, फाटक लगे होने पर भी अपनी साइकिल लिए या पैदल उस पार निकल जाने की जल्दी में होते हैं। उस समय उनकी नादानी पर खीझ और गुस्सा तो आता ही था, मन ही मन बुदबुदा भी देता था कि चढ़ जाए तब पता चलेगा। इन पलों की खामोशी में जो दर्द है, उसने मेरे मन को मेडक जिले में पहुंच...