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नहीं रुकेगी ये कलम!

जब मैं उच्च विद्यालय में पढ़ता था तब हम अपने सहपाठी को चिढ़ाने के लिए एक-दूसरे के पिताजी के नाम पर टिप्पणी करते थे, और इस बात पर हमारे बीच मारा-मारी तक हो जाती थी। कभी-कभी बात इतनी बढ़ती थी कि प्रधानाध्यापक से होते हुए बात घर तक पहुँच जाती थी। फिर पिताजी मुझे जमकर डांटते थे। मैं कहता कि पहले तो उसी ने आपका नाम बोला था, वो मेरी एक न सुनते थे। धीरे-धीरे जब माध्यमिक की कक्षा तक पहुंचे तब एहसास होने लगा कि ये क्या हद चिरकुटई करते थे हमलोग! उसी समय पहली बार किसी सभा में एहसास दिलाया गया कि हम हिन्दू हैं। फिर मुझे भी ये लगने लगा कि मुस्लिम कितने निर्दयी होते हैं? गाय काट कर खा जाते हैं। उसी दौरान एक दिन मैंने एक हिन्दू को बकरा काटते देखा, बकरा में-में कर तड़प कर मर गया। फिर मुझे लगा ये हिन्दू भी कितने निर्दयी होते हैं? हिन्दू भी निर्दयी, मुसलमान भी निर्दयी तो दयावान क्या सिर्फ मैं ही हूँ? उत्तर जानने कि कोशिश की तो पता चला कि ये निर्दयी नाम के प्राणी हर धर्म में होते हैं जिनका धर्म से कोई वास्ता नहीं होता है। उन्हें बस हिंसा का बहाना चाहिए होता है। मेरा गाँव हरचंडी उस लौंगाय स...