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नहीं रुकेगी ये कलम!

जब मैं उच्च विद्यालय में पढ़ता था तब हम अपने सहपाठी को चिढ़ाने के लिए एक-दूसरे के पिताजी के नाम पर टिप्पणी करते थे, और इस बात पर हमारे बीच मारा-मारी तक हो जाती थी। कभी-कभी बात इतनी बढ़ती थी कि प्रधानाध्यापक से होते हुए बात घर तक पहुँच जाती थी। फिर पिताजी मुझे जमकर डांटते थे। मैं कहता कि पहले तो उसी ने आपका नाम बोला था, वो मेरी एक न सुनते थे। धीरे-धीरे जब माध्यमिक की कक्षा तक पहुंचे तब एहसास होने लगा कि ये क्या हद चिरकुटई करते थे हमलोग!

उसी समय पहली बार किसी सभा में एहसास दिलाया गया कि हम हिन्दू हैं। फिर मुझे भी ये लगने लगा कि मुस्लिम कितने निर्दयी होते हैं? गाय काट कर खा जाते हैं। उसी दौरान एक दिन मैंने एक हिन्दू को बकरा काटते देखा, बकरा में-में कर तड़प कर मर गया। फिर मुझे लगा ये हिन्दू भी कितने निर्दयी होते हैं? हिन्दू भी निर्दयी, मुसलमान भी निर्दयी तो दयावान क्या सिर्फ मैं ही हूँ?

उत्तर जानने कि कोशिश की तो पता चला कि ये निर्दयी नाम के प्राणी हर धर्म में होते हैं जिनका धर्म से कोई वास्ता नहीं होता है। उन्हें बस हिंसा का बहाना चाहिए होता है।

मेरा गाँव हरचंडी उस लौंगाय से 3 किमी दूर है जहाँ 1989 के भागलपुर दंगे में जमकर नरसंहार हुआ था। संयोगवश उसी दंगे के समय मेरा जन्म भी हुआ था। मेरी दादी कहती थी कि मेरे अपने गाँव में भी मुस्लिम आबादी थी। दंगे में वे सभी जमीन बेच-बाच कर भाग गए। कुछ का तो कोई पता नहीं है कुछ पास ही के हरना-बुजुर्ग गाँव में बसे हैं।

बावजूद इसके एक मोहम्मद कमरुद्दीन अहमद के परिवार से हमारे परिवार की पुश्तैनी दोस्ती चली आ रही थी। बीच के वर्षों में यह थोड़ी प्रभावित रही, लेकिन सबसे अच्छी बात कि ये दोस्ती अब फिर से चल रही है। हमारे यहाँ की शादियों में हम एक-दूसरे को न्योता देते हैं। हमारे प्रेम के बीच तो धर्म कहीं आड़े नहीं आती है।

सभ्य समाज में आजादी वही है जहाँ हम एक-दूजे की सीमाओं का सम्मान करें। सभ्य समाज में स्वतंत्रता की भी सीमा होती है। यहाँ ईशनिंदा भी एक ऐसा ही विषय है, लगभग लोग मानते हैं ईश्वर कोई एक ही है। फिर धर्म के नाम पर ये हत्या और लड़ाई कैसी? हिंसा करने वाले किसी धर्म के लोग नहीं होते। वो सबसे बड़े वाले सेक्युलर(अधर्मी) होते हैं देखिये न पेरिस में 12 में एक मरने वाला सिपाही मुसलमान था तो आप क्या कहेंगे?

इसमें कोई शक नहीं कि शार्ली अब्दो के कई कार्टून वाहियात थे, वे भी एक स्तर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिंसा कर रहे थे, लेकिन ये कथित धर्म के संरक्षक भी हिंसा करने को बेताब हैं।

आज के दौर में जनमानस में आतंक का असर कई गुणा अधिक होता है चूंकि संचार माध्यमों की बहुलता के कारण हम जाने-अंजाने में आतंकी घटना के दृश्य तक पहुंच जाते हैं, लेकिन कुछ भी हो मुझे नहीं लगता कि आतंक से कभी "कलम" रुकने वाला है और जब तक जाहिल और धर्मांध लोग मौजूद हैं तब तक कलम से भी आतंक नहीं रुकने वाला है। ऐसे में हर इंसान को आतंक से खौफजदा हुए बिना बस अपना काम अनवरत जारी रखना होगा। प्रेम हमारे हृदय की अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

-विवेकानंद सिंह

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