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जगहित में है मानव का सृजन

धन दौलत ईमान नहीं है,
पैसा ही एहसान नहीं है।
नाम कमाना धर्म नहीं है,
केवल जीना कर्म नहीं है।
भरी रहस्यों से है सृष्टि,
जहाँ-जहाँ जाती है दृष्टि।
नील गगन में चमकते तारे,
जो जल-जल कर करे ईशारे।
धरती पर के फुल हमारे,
रंग-बिरंगे कितने न्यारे।
फुलों की मुस्कान निराली,
वसुधा पर छाई हरियाली।
सुबह-शाम की आँख मिचौनी,
जूगनू की हर रात दिवाली।
सरिता की बहकी फुलझड़ियाँ,
सागर में मोती की लड़ियाँ।
चला अकेला क्यों रे मानव,
तोड़ सबों से प्रेम की कड़ियाँ।
जीवन यह त्योहार नहीं है,
जीवन यह व्यापार नहीं है।
धरती पर मर-मर जीने से,
जीने में कोई सार नहीं है।
सरिता कल-कल करती जाती,
अपनी राह बदलती जाती।
जीवन का कुछ मर्म यही है,
चलते जाना कर्म यही है।
प्रेम का गीत बहाते जाना,
जग की लाज बचाते जाना।
अपना खून बहाकर भी,
इस जग का रूप सजाते जाना।
खाली तुम कैसे हो मानव,
दिल की छोटी सी धड़कन में
सपनों का संसार भरा है।

विवेकानंद सिंह (छात्र:- पत्रकारिता)

टिप्पणियाँ

  1. क्या यार ब्ल़ॉग पर कविता लिख रहा है? यही पत्रकारिता कर रहा है?

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  2. दोस्त कविता मेरी धड़कन है और पत्रकारिता मेरी ज़ान मैं दोनों में किसी को छोड़ नहीं सकता हूँ

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खुब बन्‍धु.... इसे दम तक निभाना है...

    जवाब देंहटाएं

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