- विवेकानंद सिंह
सरकारी स्कूलों में मिलनेवाली शिक्षा की गुणवत्ता की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। खास तौर से बिहार के सरकारी स्कूलों में काम करनेवाले शिक्षक आजकल गजब के मैनेजर बन गये हैं। हो सकता है आपको मेरी बातें थोड़ी अजीब लगे, लेकिन यह एक सच्चाई है। पढ़ाने के अलावा अपनी नौकरी बचाने के लिए व कम सैलरी को बेहतर बनाने के लिए उन्हें कई तरह से खुद को और छात्रों के अटेंडेंस को मैनेज करना पड़ता है। उन्हें हर दिन बच्चों के बिना स्कूल आये भी, उनका अटेंडेंस बनना पड़ता है। इसमें हेडमास्टर साहब (प्रधानाध्यापक) से लेकर शिक्षक भी एक-दूसरे की मदद करते नजर आते हैं। हालांकि, वे भ्रष्ट नहीं, बल्कि बस मैनेज कर रहे होते हैं, क्योंकि उनके ऊपर बैठे प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी, जिला शिक्षा पदाधिकारी का काम भी सिर्फ अपनी सैलरी से तो नहीं चल पाता है। दरअसल, वे लोग भी मैनेज कर रहे होते हैं। क्योंकि, सबसे खास बात यह है कि बच्चों के पिता खुद ही मैनेज कर रहे होते हैं। वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की चाह में अपने बच्चे को ट्यूशन देते हैं, प्राइवेट टाइप स्कूल में पढ़ने भेजते हैं, लेकिन सरकारी सिंड्रोम से ग्रस्त होकर वे सरकारी स्कूल में नाम रखवा कर बच्चे को एग्जाम वहीं से दिलवाते हैं। यह सरकारी के प्रति एक विशेष स्नेह का भी असर है। इससे एक फायदा यह होता है कि शिक्षक-गार्जियन एक-दूसरे की गलती बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं।
आपको लग सकता है कि मैं अपने मन से ये सारे बेबुनियाद आरोप लगा रहा हूं। अगर आपको ऐसा लग रहा है, तो एक बार अपने पास के सटे किसी भी सरकारी प्राथमिक या मिडिल स्कूल में एक बार हो आइये। वहां किसी भी क्लास में बैठे छात्रों की संख्या को देख लीजिए, ऐसा चार-पांच दिन लगातार करिए और उस दौरान शिक्षकों को हाय-हेलो के अलावा ज्यादा कुछ मत कहिए। बस छठे दिन प्रधानाध्यापक से क्लास अटेंडेंस का रजिस्टर दिखाने का रिक्वेस्ट करिए। फिर उसमें महीने भर के बच्चों के अटेंडेंस की फ्रीक्वेंसी को चेक करिए। सारा दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जायेगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि क्लास में बैठे बच्चों से कहीं ज्यादा बच्चों का अटेंडेंस आपको वहां दिखेगा। इन स्कूलों में नौकरी करनेवाले शिक्षक आपको तर्क देंगे कि करना पड़ता है। मैनेज नहीं करेंगे, तो कैसे जी पायेंगे?
अब इसके फायदे और नुकसान पर थोड़ा बात कर लें। जिस विधायक या मंत्री को विकास नहीं होने के लिए सोशल मीडिया पर आप गरियाते (कोसते) रहते हैं, उनतक यह रिपोर्ट पहुंचती है कि आपके स्कूल में नामांकण लिये हुए 90 प्रतिशत से ज्यादा छात्र हर दिन उपस्थित होते हैं। उन सभी बच्चों के लिए भिन्न-भिन्न योजना से दाल-चावल, किताबें और कई तरह के एड (सहयोग) मिलते हैं। अब जो बच्चे आये ही नहीं, उनका चावल-दाल कौन खाता होगा? अरे कोई नहीं खाता सर, उसको मैनेज किया जाता है। मैं अपने गांव हरचंडी गया हुआ था, तो कुछ ग्रामीणों ने बताया कि सचिव के साथ मिल कर प्रधानाध्यापक इस तरह के काम को आसानी से अंजाम देते हैं। इसमें जो सबसे अधिक मारे जाते हैं, वे गरीबों के बच्चे होते हैं। उन्हें मजबूरी में अपने बच्चे को सरकारी धर्मशाला (स्कूल) में पढ़ने भेजना पड़ता है। शिक्षकों का समय तो मैनेज करने में ही चला जाता है और छोटे-छोटे मासूम बच्चों का खिचड़ी खाने में। खैर क्या कीजिएगा? आप-हम तो कहीं लिख, बोल कर अपना-अपना पल्ला झाड़ लेंगे। इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं?
मेरे कई मित्र पिछले दिनों थोक से शिक्षक बने हैं, उनलोगों से मुझे ईमानदारी की उम्मीद थी, या कहें अभी भी है। लेकिन सिस्टम कहां किसी को छोड़ता है। अब वे भी ढलने लगे हैं, वे भी तरह-तरह के तर्क गढ़ने लगे हैं। वे कहते हैं कि उन्हें भी नौकरी करनी है। करिए भाई, जरूर करिए, अपना पूरा देश नौकरी करने के लिए ही तो बैठा है। सिर्फ सरकारों को मैं पूरा दोषी इसलिए नहीं मानता, क्योंकि वह अपने स्तर से ऐसे भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयास करती हैं।
शायद आपको पता हो कि राइट टू एजुकेशन एक्ट, 2009 (RTE) के तहत केंद्र सरकार द्वारा देश भर के स्कूलों में बच्चों के एडमिशन, अटेंडेंस और प्राइमरी एजुकेशन पर नजर रखने से संबंधित एक कानून बनाया गया है. सरकार ने तय किया है वह यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन यानी U-DISE के तहत सरकारी और प्राइवेट स्कूलों से संबंधित सूचनाओं को एकत्रित करेगी. इसके जरिये मानव संसाधन विकास मंत्रालय, हर छात्र का डाटाबेस तैयार करेगा और उसे डाटा मैनेजमेंट इन्फॉरमेशन सिस्टम में रखा जायेगा. यही नहीं इसमें यह प्रावधान भी है कि जो स्कूल U-DISE को सही सूचना नहीं देंगे, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी. इससे संबंधित खबर इंडियन एक्सप्रेस समाचार पत्र में इसी वर्ष 05 जनवरी को प्रकाशित हुई थी। खैर सूचना का क्या है, सूचनाओं को तो बदला जा सकता है। सच को झूठ और झूठ को सच करने की हेराफेरी में तो अपने देश के लोग माहिर हैं।
आप से मेरी इतनी-सी दरख्वास्त है कि जो लोग बदलाव के लिए सिर्फ सरकारों को कोसते हैं, वे अपने स्तर से एक बार पहल करके देखिये। अपने पास के स्कूल, अस्पताल, प्रखंड में ऐसे मैनेज करनेवाले लोगों का प्रतिकार करिए। हो सकता है तब आपके साथ कोई न आये, पर आप बदलाव को देख पायेंगे। हां, अगर ऐसा करने का मन नहीं है, तो फिर सरकारों को बदलते तो आप जरूर देख पाएंगे, लेकिन हालात जस-के-तस रहेंगे। अगर कोई ईमानदार शिक्षक मेरे इस पोस्ट पढ़ रहे हों, तो दिल पर हाथ रख कर कहियेगा सर कि क्या आपको इस मैनेज करनेवाली व्यवस्था के खिलाफ बगावत करने का मन नहीं करता है? हां, अगर कोई मैनेज करनेवाले शिक्षक इसे पढ़ रहे हैं, तो तर्क गढ़िए, हमको झूठा साबित करिए। हम खुश होंगे अगर आप हमें झूठा साबित कर देंगे। लेकिन, यह भी कहूंगा कि अपने आप को बदल सकते हैं, तो बदलिए। कृपया 'शिक्षक' बने रहिए, मैनेजर मत बनिए सर, आप कोई कंपनी या बैंक नहीं चला रहे हैं, आपके हाथों में तो देश का भविष्य पल रहा होता है। कृपया उसे उज्जवल बनाइए।
नोट : ऐसा नहीं कि अपवाद नहीं होते, लेकिन अधिकांश सरकारी स्कूलों की स्थिति ऐसी ही है।
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