नहीं है इसमें पड़ने का खेद, मुझे तो यह करता हैरान
कि घिसता है यह यंत्र महान, कि पिसता है यह लघु इंसान,
हरिवंशराय बच्चन की उपरोक्त पंक्तियों में मुझे आज़ का भारतीय लोकतंत्र दिखाई देता है। कुछ ही महीनों बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मेला लगने वाला है। जिसमें देश की करोड़ों आवादी हिस्सा लेगी। इस मेले से लाखों उम्मीदें जुड़ी हैं शायद उस छोटे से इंसान के जीवन में कुछ परिवर्तन आएगा, लेकिन घूम-फिर कर सूई फिर उसी ज़गह-उन्हीं मुद्दों पर पहुँच जाती है, गरीबी आज़ भी व्याप्त है, आज भी देश में भूखे लोग मौज़ूद हैं, महिलाओं पर अत्याचार रूकने का नाम नहीं ले रहा है, भ्रष्ट्राचार से तो लोग हार मानते जा रहे हैं, और ऐसे में लोकतंत्र के प्रहरी ज़नता के साथ लूका-छिपी का खेल खेलें तो लगता है समस्या का निवारण आने वाली सरकार से भी संभव नहीं हो पाएगा।
कहने वाले कहते हैं कि इस लोकतंत्र में एक गज़ब की छमता है यह अपने अंदर स्वशुद्धीकरण की ताकत छुपाए बैठा है। यह तर्क अब दकियानूसी लगता है क्योंकि अवसरवाद की आंधी ने सब कुछ ध्वस्त कर रखा है। हर व्यक्ति अवसरवादी होता जा रहा है।
समूची दुनिया में भारत एकमात्र ऐसा देश है जहाँ इतनी बहुतायत में राजनीतिक पार्टीयाँ हैं। और सभी की भागीदारी अहम मानी जाती है शायद यही एक कारण है जिससे भारतीय लोकतंत्र का स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
प्रश्न तब खड़ा होने लगता है जब एक राजनीतिक पार्टी के सारे उद्देश्य परिवार और घर तक सीमित हो जाते हैं। 2002 में रामविलास पासवान ने जिसकी वज़ह से एनडीए छोड़ा था, आज उसी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एनडीए के साथ आए हैं। इससे तो लगता है 2002 बहुत पिछे छुट चुका है और सामने सिर्फ 2014 की लड़ाई नज़र आ रही है। रामविलास के इस फैसले से चिराग की लौ बरकार रहने के अलावे, उनकी नज़र बिहार के 2015 में होने वाले विधानसभा चुनाव की पारी में भाई को उपमुख्यमंत्री बनाने का सपना हो सकता है लेकिन भाजपा को इसका सीधा लाभ होता दिख रहा है।
काँग्रेस ने पिछले 10 वर्षों में ऐसा क्या कर दिया कि जनता में उसके खिलाफ़ नाराज़गी का माहौल दिख रहा है। अण्णा और सिविल सोसाईटी आंदोलन ने ज़नता को ये मनवा दिया कि देश में मंहगाई, बेरोज़गारी की मुख्य वज़ह भ्रष्ट्राचार है। जेपी के अंदाज़ का आंदोलन हुआ और देश में काँग्रेस के खिलाफ माहौल बनता गया।
काँग्रेस कहती रही शिक्षा का अधिकार, आरटीआई, मनरेगा, पोलियो मुक्त भारत, केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की संख्या 17 से बढ़कर 44, लेकिन 2 जी, कोलगेट और उपर से डॉ साहब की खामोशी 10 साल में मात्र 3 बार मीडिया के समक्ष अपनी प्रस्तुति से, जन मानस में काँग्रेस पार्टी को भ्रष्ट् पार्टी का टैग मिल चुका है। जाते-जाते खाद्य सुरक्षा और लोकपाल बिल भी पास करा गये, लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि जनता की अदालत में ये पास होते हैं या फेल।
अब लोकतंत्र का महाकुंभ ज्यों-ज्यों करीब आ रहा है, सारी पार्टीयों में कुर्सी के लिए छीना-झपटी का दौर शुरू हो चुका है। प्रश्न सबके जेहन में एक ही आ रहा है कि कुर्सी किसके हिस्से आयेगा?
जनता के लिए कुर्सी दर्शन की संभावनाएँ जो आम आदमी पार्टी के माध्यम से दिख रही थी, दिल्ली का सिंहाशन छोड़ने के बाद से वो धार कुंद पड़ती जा रही है। अण्णा का आशीर्वाद ममता दीदी के हिस्से जा रहा है तो वहीं बाबा रामदेव का योगामृत मोदी के साथ, मीडिया सर्वेक्षण भी नमो-नमो की लहर दिखा रही है।
आखिरी फैसला तो जनता को ही करना है देखना होगा कि वो अपनी हालत पर वोट डालेंगे या, किसी विचार पर या फिर, देश की खुशहाली और तरक्की के लिए। आजादी के बाद से लेकर अब तक उम्मीद का दिया जलाए बैठे लोगों का घर क्या सच में रौशन हो पाएगा, या इन्हीं चंद अवसरवादियों की भेंट चढ़ जाएगा हमारा लोकतंत्र।
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