विवेकानंद सिंह
जनता परिवार को लेकर सबके दिमाग में अभी बस एक ही बात आ रही होगी कि इतना हो-हल्ला और कई मीटिंग्स के दौर के बाद जब सबने एक होने का फैसला कर ही लिया तो बिहार विधानसभा चुनाव से पहले यह विलय क्यों नहीं? जब मोदी की लहर के कारण धुर विरोधी हो चुके दो भाई गले मिलने को तैयार हो ही गए तो अब आखिर क्या समस्या हो गई? क्या लालू-नीतीश के रिश्तों में फिर से दरार आ गई? क्या पप्पू और मांझी का इसमें कोई फैक्टर तो नहीं है? लेकिन सवालों से इतर हकीकत यही है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में राजद-जदयू के विलय से बेहतर विकल्प उनके लिए गठबंधन ही है।
राजद के एक नेता से मेरी बात हुई तो उनका कहना था कि उनके लिए सीटों की संख्या से बड़ा मसला 16 वीं बिहार विधान सभा चुनाव में बीजेपी को सत्ता तक पहुँचने से रोकना है। बीजेपी के नेता ने कहा कि इनकी आपसी लड़ाई के बीच हम 175 का आंकड़ा छूने में कामयाब होकर रहेंगे। खैर हार-जीत का पता तो चुनाव के बाद ही चलेगा लेकिन जनता परिवार में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले इस हलचल पर मशहूर नारा याद आ रहा है “अभी तो ये अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है”। देखना दिलचस्प होगा कि दोनों पार्टियाँ किसी नतीजे पर कब तक पहुँचते हैं? अब जबकि चुनाव आयोग ने भी संकेत दे दिए हैं कि बिहार में विधानसभा चुनाव सितंबर या, अक्टूबर महींने में कराए जाएंगे। इसको लेकर राजनीतिक दल भी चुनावी मोड में आते जा रहे हैं। भाजपा के लिए यह चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके ठीक बाद उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं।
आखिर क्यों नहीं विलय करना चाहते लालू-नीतीश
बिहार की राजनीतिक प्रयोगशाला में फिलहाल जनता परिवार के विलय पर रोक लग गई है। नीतीश कुमार की सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) और लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के बीच मामला अब गठबंधन पर आकर अटका है। सवाल यह है कि आखिर लालू और नीतीश अभी क्यों नहीं विलय करना चाहते? क्या बिहार में अब नरेंद्र मोदी का खतरा कम हो गया है? इस विलय के नहीं होने का पहला कारण तो यह है कि राजद और जदयू जैसी पार्टियाँ चुनाव से कुछ महीने पहले अपने चुनाव चिन्ह में बदलाव का कोई रिस्क नहीं लेना चाहती।
बिहार और जाति का रिश्ता वहाँ की राजनीति को थोड़ा सरल और ज्यादा जटिल बनाती है। अब आप समीकरण पर एक नज़र डालकर देखिए। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में कोयरी-कुर्मी और अति पिछड़ों के नेता के तौर पर सर्वमान्य हैं। साथ ही पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम समाज में भी नीतीश की छवि स्वीकार्य है। दूसरी तरफ लालू प्रसाद के साथ यादवों का समर्थन है। वहीं कांग्रेस भी यदि इनके गठबंधन में शरीक होती है तो कुछ अगड़ों समेत मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलना तय है। इस तरह से इनके राजनीति की आधारभूत संरचना पर नज़र दौड़ायें तो कुर्मी-यादव-मुस्लिम (kym) फैक्टर के साथ अपनी सत्ता कायम रखना चाहेंगे।
विलय नहीं होने के पीछे अगड़े और दलित वोट
बिहार में अभी किसी नीतीश विरोधी से पूछा जाए कि वर्तमान में नीतीश से बेहतर मुख्यमंत्री का नाम सुझाएँ तो वह कुछ देर तक सोचते रह जाएंगे। यानी कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के रूप में बिहार में अब भी लोकप्रिय हैं। ऐसे में अगर लालू-नीतीश की पार्टियों का विलय हो जाने की स्थिति में अगड़े और दलित वोट से इनको हाथ धोना पड़ सकता। बिहार में नीतीश कुमार ही वह नेता हैं जिन्होंने लालू के बाद अगड़ों की राजनीतिक वापसी कराई, खासतौर से भूमिहारों की, साथ ही नीतीश के शासन काल में सही मायनों में कुछ हद तक दलितों का भी उत्थान हुआ। उसका ही नतीजा है कि आज मांझी नीतीश से बगावत करने में सफल भी हो पाए हैं। आज भी दलित और भूमिहार समाज का बड़ा हिस्सा नीतीश के प्रति सहानुभूति रखता है जिसकी संख्या बिहार में काफी है लेकिन ये लोग लालू प्रसाद को बिल्कुल पसंद नहीं करते। ऐसे में ये वोट जदयू के लिए बड़े काम आ सकते हैं। ये वोट दाल में डाले जाने वाले छौंक के बराबर भी पड़ गए तो जदयू की राह आसान हो जाएगी।
बिहार में लालू प्रसाद की छवि अगड़ा विरोधी की बनी रही है लेकिन कई क्षेत्रों में लालू को भी अगड़े वोट करते हैं। रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे घोर समाजवादी नेता हमेशा लालू के साथ बने रहे। एमवाई के साथ-साथ लालू को बिहार के राजपुत जाति का मत भी बड़ी संख्या में मिलता रहा है। विलय होने की सूरत में इन मतदाताओं के खिसकने का खतरा था। तो हमें एक बात मान कर चलना चाहिए कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के पार्टियों का विलय की जगह गठबंधन की तरफ बढ़ना एक सोचा-समझा राजनीतिक कदम है।
अगर पप्पू और मांझी जनता परिवार के साथ होते तो?
अगर पप्पू यादव ने राजद से और जीतनराम मांझी ने जदयू से अलग होकर अपनी-अपनी पार्टी नहीं बनाई होती तो शायद अब तक बिहार में जनता परिवार का विलय हो चुका होता। पप्पू यादव पूर्णिया और कोसी के क्षेत्रों में खासे लोकप्रिय हैं और जब से वह राजद से अलग हुए हैं लालू प्रसाद की डायनेस्टी पॉलिटिक्स (परिवार वाद) पर हमला कर रहे हैं। वो सीधा लालू प्रसाद पर हमला कर राजद के वोट को अपनी तरफ करने में जुटे हैं, ऐसे में राजद का विलय के जरिए खत्म हो जाना खतरे से खाली नहीं था। इस सूरत में समर्थक किसी भी तरफ जा सकते थे।
वहीं जीतनराम मांझी को आगे करके नीतीश के राजनीतिक विरोधी बने लोग अपनी खुन्नस निकालने में जुटे हैं जिसमें बिहार के पुराने नेता शकुनी चौधरी, वृषण पटेल और नीतीश मिश्र जैसे लोग शामिल हैं। यहाँ भी जदयू के यकायक नए रूप में सामने आने पर दिक्कतें बढ़ सकती थी।
सीटों का अंकगणित और मुख्यमंत्री की कुर्सी
243 सीटों वाली बिहार विधान सभा में अभी जदयू के 111 विधायक हैं जबकि राजद के पास 24 विधायक हैं। इसके अलावा भाजपा के पास 86 और कांग्रेस के 5 विधायक हैं। इससे पहले लालू यादव ने कहा था कि जेडीयू-आरजेडी में गठबंधन होकर रहेगा, लेकिन सभी को बड़े त्याग के लिए तैयार रहना चाहिए। विधानसभा चुनाव के लिए लालू प्रसाद 140 सीटों पर अपना दावा कर रहे हैं, साथ ही नीतीश कुमार को साझा मुख्यमंत्री उम्मीदवार मानने को लेकर भी राजद की हिचकिचाहट सामने आई है। ऐसे में अगर जदयू और राजद के बीच सीटों को लेकर समझौता नहीं हो पाता है कांग्रेस अपने पुराने मित्र राजद की जगह जदयू को चुनने के लिए तैयार है।
हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव के परिणाम पर नजर डालें तो जदयू ने 141 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिसमें 115 उम्मीदवार विधानसभा पहुंच सके थे, जबकि भाजपा ने 102 सीटों में से 91 सीटों पर जीत हासिल की थी। राजद ने 168 प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से 22 जीते, जबकि लोजपा के 75 उम्मीदवारों में से तीन ही विजयी हो सके थे। कांग्रेस ने सभी 243 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, परंतु उसकी झोली में मात्र चार सीटें ही आई थीं।
आगे फैसला चाहे जो भी हो लेकिन राजद-जदयू ये बात अच्छी तरह समझ चुकी है कि बिना आपसी गठबंधन के बिहार विधानसभा चुनाव में उतरना उनके लिए खतरे से खाली नहीं है। इसलिए पार्टी के अंदर उठ रहे कुछ विरोध के स्वर के बावजूद दोनों पार्टी के वरिष्ठ नेता गठबंधन को लेकर आश्वस्त नज़र आ रहे हैं। लेकिन इंतजार है इस पर चुप्पी के टूटने की, तभी तय हो सकेगा बिहार विधानसभा चुनाव में जनता परिवार का भविष्य क्या होगा?
(यह लेखक के विचार हैं)
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