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दफ्तर के अंदर बैठे पत्रकार की यात्रा

छोड़ रहा हूँ इकबार फिर से तुझे ऐ दिलवाले शहर... लेकिन मेरे अनुभव की किताब का चौराहा तो तूं ही होगा। मुझे लगता है कि मैं बिल्कुल देशी मॉडल का एक शहरी आदमी हूँ। अक्सर जिस किराये के मकान में रहता हूँ उसे अपना ही घर समझने की भूल कर लेता हूँ, जिस कंपनी में काम करता हूँ वह कंपनी मुझे अपनी ही लगने लगती है। लेकिन यकायक जब ये सबकुछ छूटने को होता है तो मैं बार-बार फ्लेशबैक में चला जाता हूँ और यादों की फिल्म आभासी परदे पर मेरे सामने से किसी परछाई की तरह गुजरने लगती है। कुछ ऐसा ही वक्त था जब मैं आई-नेक्स्ट समाचारपत्र की नौकरी (कानपुर) को छोड़ रहा था लेकिन तब मुझे इस बात की खुशी थी कि मैं अपने दोस्तों के बीच दिल्ली लौट रहा हूँ। फिर यहाँ दिल्ली आकर एक नई वेबसाइट से जुड़ना और चार लोगों की लॉचिंग टीम का हिस्सा बनना अपने-आप में कमाल का अनुभव था। हमलोगों ने कई ईमानदार कोशिशें की लेकिन तब हमारी स्टोरी को 100 लोग भी पढ़ लेते थे तो हमारे अंदर एक सुकून का भाव आ जाता था। वह दिन शायद ज्यादा खुशी का था जब हमने देखा कि किसानों के मुद्दे पर लिखे गए एक आलेख को अबतक तीन हजार से ज्यादा लोग पढ़ चुक...