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अप्रैल, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रकृति के साथ कौन करेगा संवाद?

यह जीवन किस कदर क्रूर हो सकता है इसकी बानगी हम नेपाल त्रासदी में देख ही रहे हैं। वर्षों की मेहनत के बाद बना निर्माण कैसे देखते ही देखते ताश के पत्तों की तरह बिखर गया? साथ में बिखर गई हजारों साँसें, संबंध और संवेदनाएँ! जब प्रकृति अपना संतुलन खोती है तब बात-बात में प्रकृति को नीचा दिखाने वाले मानव लाचार और बेबस नज़र आने लगते हैं। आज कुछ ऐसी ही बेबसी मन ही मन मैं भी महसूस कर रहा हूँ, दिल में अजीब सी बेचैनी और अकुलाहट हो रही है। नेपाल में मरने वालों में मेरा अपना तो कोई नहीं है जिसे मैं स्वयं जानता हूँ लेकिन मानवता के नाते लगता है कि कई दिनों से मैं कितना कुछ खोता जा रहा हूँ? मुनरिका के जिस मेस में मैंं खाता हूँ, रात में जब वहाँ खाने पहुँचा तो खाते समय पंडित जी बोले लगता है आज शाम आपने बाहर में नाश्ता कर लिया है। मैंने जवाब दिया नहीं तो, वो फिर बोले... तो आज तीन ही रोटी क्यों? अन्य दिन तो छह रोटियाँ खा लेते थे। मैंने कहा बस भूख नहीं है पंडित जी। खाने के बाद जब से कमरे में आया हूँ तब से न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही थी और न ही नींद आ रही थी। बस लेपटॉप में फेसबुक का एक विंडो ...

अरे यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिन्दगी...!

दोस्त जब एकजुट होते हैं तो मानों धरती पर आकाशगंगा उतर आती है। ऐसा लगता है जैसे वीरान वादियों के बोझिल सन्नाटे में रंग-बिरंगे तारे जगमगा उठे हों। मन कब बच्चा बन जाता है पता ही नहीं चलता। उस समय बस सबसे जी भर के गले लग जाने को दिल चाहता है। न कोई गिला-शिकवा और न ही कोई शिकायत! कुछ तो बात है इन फिजाओं में कल यानी कि 28 मार्च की शाम जेएनयू के पूर्वांचल का कुछ ऐसा ही नज़ारा था। हमारे अनन्य मित्र "अभिषेक कुमार चंचल" और उनके हम जैसे स्नेही स्वजनों के सहयोग से लिट्टी-चोखा के  बहाने आईआईएमसी के दोस्तों का मिलन हुआ। वो बीते लम्हें फ़्लैशबेक की तरह हमारी नज़रों के सामने थे। जब सोचता हूँ तो गहराईयों में उतर जाता हूँ शाम तो ऐसे गुजरी जैसे सामने से कोई ग़ज़ल गुजर रही हो। सच कहता हूँ दिल करता रहा कि इस शाम को बस यूँ ही मुठ्ठी में थाम कर रख लूँ, लेकिन दिल में बसी यादों और कुछ तस्वीरों के सिवाय हम उस पल को बीत जाने से रोक न सके।  नौकरी और कुछ निजी बाध्यताओं की वजह से सारे मित्र तो नहीं आ सके लेकिन जो आये उनसे मिलकर ऐसा लगा जैसे चैत के महीने में बहते-बहते खुद बसंत चला आया है।...