यह जीवन किस कदर क्रूर हो सकता है इसकी बानगी हम नेपाल त्रासदी में देख ही रहे हैं। वर्षों की मेहनत के बाद बना निर्माण कैसे देखते ही देखते ताश के पत्तों की तरह बिखर गया? साथ में बिखर गई हजारों साँसें, संबंध और संवेदनाएँ! जब प्रकृति अपना संतुलन खोती है तब बात-बात में प्रकृति को नीचा दिखाने वाले मानव लाचार और बेबस नज़र आने लगते हैं। आज कुछ ऐसी ही बेबसी मन ही मन मैं भी महसूस कर रहा हूँ, दिल में अजीब सी बेचैनी और अकुलाहट हो रही है। नेपाल में मरने वालों में मेरा अपना तो कोई नहीं है जिसे मैं स्वयं जानता हूँ लेकिन मानवता के नाते लगता है कि कई दिनों से मैं कितना कुछ खोता जा रहा हूँ? मुनरिका के जिस मेस में मैंं खाता हूँ, रात में जब वहाँ खाने पहुँचा तो खाते समय पंडित जी बोले लगता है आज शाम आपने बाहर में नाश्ता कर लिया है। मैंने जवाब दिया नहीं तो, वो फिर बोले... तो आज तीन ही रोटी क्यों? अन्य दिन तो छह रोटियाँ खा लेते थे। मैंने कहा बस भूख नहीं है पंडित जी। खाने के बाद जब से कमरे में आया हूँ तब से न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही थी और न ही नींद आ रही थी। बस लेपटॉप में फेसबुक का एक विंडो ...