यह जीवन किस कदर क्रूर हो सकता है इसकी बानगी हम नेपाल त्रासदी में देख ही रहे हैं। वर्षों की मेहनत के बाद बना निर्माण कैसे देखते ही देखते ताश के पत्तों की तरह बिखर गया? साथ में बिखर गई हजारों साँसें, संबंध और संवेदनाएँ! जब प्रकृति अपना संतुलन खोती है तब बात-बात में प्रकृति को नीचा दिखाने वाले मानव लाचार और बेबस नज़र आने लगते हैं। आज कुछ ऐसी ही बेबसी मन ही मन मैं भी महसूस कर रहा हूँ, दिल में अजीब सी बेचैनी और अकुलाहट हो रही है। नेपाल में मरने वालों में मेरा अपना तो कोई नहीं है जिसे मैं स्वयं जानता हूँ लेकिन मानवता के नाते लगता है कि कई दिनों से मैं कितना कुछ खोता जा रहा हूँ?
मुनरिका के जिस मेस में मैंं खाता हूँ, रात में जब वहाँ खाने पहुँचा तो खाते समय पंडित जी बोले लगता है आज शाम आपने बाहर में नाश्ता कर लिया है। मैंने जवाब दिया नहीं तो, वो फिर बोले... तो आज तीन ही रोटी क्यों? अन्य दिन तो छह रोटियाँ खा लेते थे। मैंने कहा बस भूख नहीं है पंडित जी। खाने के बाद जब से कमरे में आया हूँ तब से न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही थी और न ही नींद आ रही थी। बस लेपटॉप में फेसबुक का एक विंडो खोल रखा था और दूसरे में अलज़जीरा.कॉम का, यूँ ही कुछ से कुछ करते हुए नज़र बार-बार नेपाल की खबरों पर ही टिक जा रही है। 3 हजार से ज्यादा मौत की ख़बर सुनकर मन उसे मानने को बिल्कुल तैयार ही नहीं है।
तभी मुझे यकायक याद आया कि 2011 में जब मैं जन्तु विज्ञान से स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहा था तब भी मार्च के अंतिम सप्ताह में जापान में भयानक भूकंप और समुद्री बाढ़ (सूनामी) आई थी। इस तबाही ने भी जापान को हिला के रख दिया था। उस समय वहाँ भी काफी जान-माल का नुकसान हुआ था। तब मैंने भागलपुर में एक समाचारपत्र में संपादक के नाम एक पत्र लिखा था कि प्राकृतिक संपदाओं का दोहन रूके, इसके लिए मीडिया को भी आगे आना चाहिए और लोगों में पुनर्जागरूकता फैलानी चाहिए। उस अख़बार ने वकायदा विद्यालय और महाविद्यालय से टाईअप करके तब कई जागरूकता कार्यक्रम आयोजित भी किए थे।
जब किसानों की मौत के दर्द ने देश को झकझोरना शुरू किया ही था कि ये मौतों का मेला नेपाल में लग गया, तरह-तरह की मौतें पल भर में विकास की वेदी पर ख़ाकसार हो चुके हैं। कभी अतिवृष्टि तो कभी अल्पवृष्टि अब यह हमारे यथार्त के साझीदार बन चुके हैं। भूजल स्तर पाताल जाने को बेताब है नदियों के किनारें पीने को पानी नसीब नहीं हो रही है। पेड़ के नीचे खड़े रहने पर गर्मी का एहसास हो रहा है। पृथ्वी से सवाल पूछने का मन हो रहा है कि ऐ पृथ्वी तूझे ये क्या हो गया है? तू ऐसी हरकतें क्यों कर रहा है? ऐसे कई सवाल मेरे अंदर सिहरन पैदा कर रहे हैं।
बचपन में पिताजी की ने एक कहानी सुनाई थी जो आधी-अधूरी याद आ रही है। हुआ यूँ कि एक पढ़े-लिखे विद्वान नाव से नदी पार कर रहे थे। नदी पार करते समय विद्वान ने नाविक से पूछा तुम्हें भौतिकी का ज्ञान है? नाविक ने कहा नहीं, इस पर विद्वान बोले तब तो तुम्हारी 25 प्रतिशत जिन्दगी बेकार हो गई। इसी प्रकार फिर पूछा गणित जानते हो, नाविक ने फिर ना में सिर हिलाया। तीसरी बार पूछा जीव विज्ञान जानते हो तो फिर नाविक ने ना में सिर हिलाया, विद्वान व्यक्ति नाविक से बोले तुम्हारी तो 75 प्रतिशत जिन्दगी ऐसे ही बेकार हो गई। तभी नदी में जोर का तूफान आ गया और नाव में पानी भरने लगा इस पर नाविक ने उस विद्वान से पूछा आपको तैरने आता है क्या? विद्वान ने जवाब दिया नहीं, इस पर नाविक ने कहा फिर तो आपकी शत-प्रतिशत जिन्दगी बेकार है क्योंकि अब ये नाव डूबने वाली है, देखते-देखते नाव डूब गई और विद्वान मारे गए।
मेरे पिताजी हमेशा कहते रहते हैं कि कुछ भी पढ़ो, कुछ भी करो लेकिन प्रकृति से प्रेम अवश्य करो। उससे लगाव बढ़ाओ, उसके साथ संवाद स्थापित करो। देखना वह तुम्हें हमेशा खुशियों का एहसास कराता रहेगा। गाँव में मेरे घर के अंदर छोटे से बगीचे में हरश्रृंगार से लेकर ऐसे कई पौधे माँ ने लगा रखे हैं जिससे कि औषधि हेतु मेडिकल का मुँह कम ही देखना पड़ता है। कहने का उनवान् बस इतना है कि प्रकृति से दुश्मनी मोल लेकर कुछ भव्य और विशाल सा बना भी लिए तो क्या होगा? ये कॉंक्रीट का जंगल तो अपने अंदर मौत की कहानियाँ ही संपादित कर रहा है। जिस दिन प्रकृति ऐसे ही अपना संतुलन खोएगी अख़बार मौत की कहानियों से भरे पड़े होंगे फिर हमारे पास अफसोस करने के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा।
विवेकानंद "भारत"
आप इसे www.haritkhabar.com पर भी पढ़ सकते हैं।
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