बाबा रामपाल के चक्कर में कुछ देर के लिए ही सही, गली-मोहल्ले और तमाम शहरों में जमे पड़े स्वयंभू बाबाओं के पाखण्ड से पर्दा हटाने की कोशिश हो रही है।
मैंने सोचा चलो इसी बहाने मैं भी अपने कुछ राज शेयर करूँ। मेरे पुराने दोस्त जो मुझे इंटरमीडिएट के समय से जानते हैं वो मुझे "बाबा" कहकर भी बुलाते हैं। इसके पीछे की वजह ये है कि तीन दिन तक एक आश्रम में मैं भी बाबा की तरह ही रहा था।
इसके पीछे की घटना थोड़ी लम्बी है, जो लोग बिहार के होंगे वो "संतमत" को जानते होंगे। मेरे माता-पिता इस मत से दीक्षित हैं। इस मत के प्रचारक "महर्षि मेंही दास" रहे थे। भागलपुर के रहने वाले इस मत से और अच्छी तरह वाकिफ होंगे। कुप्पघाट में इनका आश्रम है, आये दिन यह आश्रम भी भिन्न-भिन्न कारणों से विवादों में रहा है।
वैसे यह सच है कि सत्संग में अच्छी-अच्छी बातें ही बताई जाती हैं, लेकिन आप जिनकी बातें मानकर, "राह पकड़कर एक चलाचल पा जाएगा मोक्ष-शाला" के लिए निकल पड़ते हैं उस गुरु को जांचना-परखना भी जरुरी होता है।
अब मुद्दे पर आता हूँ हुआ यूँ कि भागलपुर से सटे सबौर में "स्वामी वेदानन्द" का अपना एक आश्रम है। घटना 2004 की है मैं तब दशवीं का छात्र था स्वामी जी मेरे गाँव आये थे सत्संग करने के लिए, मैं अपने पिताजी के साथ स्वामीजी से मिला, उनकी थोड़ी-बहुत सेवा की तो उन्होंने मुझे अपने पास बैठने कहा। मैं उनके पास बैठ गया वो लगे हमसे सवाल पूछने, नाम पूछा, पढ़ाई के बारे में पूछा, मैं जवाब देते जा रहा था। उन्होंने पूछा क्या बनना चाहते हो? मेरा जवाब था डॉक्टर! वो बोले क्या करोगे डॉक्टर बनकर, मैंने कहा लोगों का ईलाज करूँगा उनकी सेवा करूँगा। वो हँसने लगे, और बोले ऐसा करके भी शांति नहीं मिलती।
फिर उन्होंने पूछा कि तुम्हें कौन सा फल पसंद है? मैंने कहा "आम" इसपर वो बोले मेरे साथ चलो मेरे आश्रम के बगीचे में बहुत आम है।
भाई साहब मैं भी निकल लिया उनके साथ, गाँव के कुछ लोग साथ में थे तो पिताजी को लगा उनके साथ जगदीशपुर से लौट आएगा। मेरे गाँव के सारे लोग जगदीशपुर तक बाबा को छोड़कर लौट गए, बाबा ने मुझे लौटने ही नहीं दिया। इधर मेरे घरवाले परेशान कि कहीं लड़का सन्यासी न बन जाए।
मैं पहुँच गया आश्रम, कुल 20 सन्यासी होंगे आश्रम में, मुझे जाने के साथ एकदम से मन नहीं लग रहा था। मैं दिन भर यूँ ही उदास सा रहा, बाबा के शिष्य आते कुछ बात करते। उनमें से एक मठाधीश थे आश्रम का पूरा रूटीन उनके हाथ में था। वो एक कुशल दर्जी (कपड़ा सिलते) थे। उनलोगों में एक ने पैरामेडिकल कर रखा था, उसे सब कम्पाउण्डर बाबा बुलाते थे।
उनलोगों में एक मेरी ही उम्र के थे सन्यासी "चन्दन" उन्हें बाबा पूर्णिया से अपने साथ ले आये थे। उससे मेरी दोस्ती हो गई। उससे पूछने पर पता चला की एक दुर्घटना में उसके पुरे परिवार की मौत हो गई थी। वो अनाथ की तरह था, एक सत्संग के कार्यक्रम में बाबा से भेंट हो गई तो बाबा अपने साथ लेते आये थे।
आश्रम में दिन में खिचड़ी और रात में रोटी-सब्जी बनती थी। मैं रात को खाने बैठा था रोटी और भिन्डी की सब्जी थी, सच कहूँ तो गले से उतर ही नहीं रही थी। मठाधीश बाबा समझ गए, उन्होंने कहा रुको मैं देखता हूँ वो रसोई में गए और उधर से खीर और पुरियां लेकर आये, उन्होंने वो मुझे दे दिया खाने को। मैंने खाने के बाद उनसे पूछा वो खीर कहाँ से आया, तो वो बोले रोज कोई न कोई कुछ खास बनाकर बाबा के लिए ले आता है।
उस दिन से मुझे बाबा के लिए आने वाले खाने ही मिलते थे। मैं उनलोगों के बीच रम गया था, समस्या तब आई जब दुसरे दिन मैं नहाने गया, मैं अपने साथ कोई कपड़े लेकर नहीं आया था। फिर "सन्यासी" चन्दन ने अपना सफ़ेद धोती-कुरता मुझे दे दिया और मैंने पहन भी लिया।
अब एक संयोग देखिये मेरे गाँव के एक व्यक्ति की शादी सबौर में हुई है मैं नहाकर आश्रम की छत पर गया था और वो वहां पास की सड़क से गुजर रहे थे। उनकी नज़र मुझ पर पड़ी, वो रूककर मुझे गौर से देखने लगे। उनसे रहा न गया वो आश्रम की तरफ आये मुझे "छोटू" कहके पुकारा। मैं नीचे आया, वो मुझे देखकर आवाक थे, मैं सफ़ेद धोती-कुरता पहने था। उन्होंने पूछा बन गए, मैंने सारी व्यथा सुनाई।
तब मेरे घर में लैंडलाइन फ़ोन हुआ करता था। मेरे गाँव के उस व्यक्ति ने ससुराल पहुंचकर फोन से मेरे पिताजी को सारी बात बताई। मेरे पिताजी ने उनसे कहा कि कल आ जायेंगे।
इस दौरान कई सन्यासी बड़ी चिरकुट की तरह करते। एक ने हमसे कहा तुम्हारी अंग्रेजी ठीक है, तुम बाबा बनोगे तो बहुत दक्षिणा मिलेगी। वहां पर सभी लोग पढ़ा करते थे, सभी का फोकस अंग्रेजी की ओर रहता था। एक बहुत बदमाश था, वो आस-पास किसी लड़की को जाते देखता तो बोलता इससे शादी करोगे।
मैंने सारी बात जाकर बाबा को बताई कि ये ऐसे-ऐसे बोलता है। वो बोले कि ये लोग साधक है, अपने आप को साधने की कोशीश कर रहा है। बोले जैसे सभी विद्यार्थी होते हैं उनमें से कुछ ही डॉक्टर बन पाते हैं उसी तरह इनमें से कुछ ही संत बन पायेंगे।
अगली सुबह मेरे पिताजी जीप(गाड़ी) लेकर पहुँच गए। तीन दिन हुए थे बस मुझे लगाव गहरा हो चला था। लेकिन उसी दिन लौट गया। तबसे लेकर वहाँ फिर एक-दो बार और गया था, अब चन्दन बड़े बाबा बन चुके हैं। आश्रम महलनुमा हो चूका है।
ऐसे आश्रमों में सही मायनों में सन्यासी तो कुछ ही लोग होते हैं। बाकी ट्रस्ट और आने वाली कमाई को हथियाने के लोभ में राजनीति करने वाले(रंगे सियार) बाबा का भेष धर लेते हैं।
फिर उसके पीछे में क्या-क्या होता है ये आपलोगों के सामने धीरे-धीरे आ ही रहे हैं।
तो ये थी मेरे "बाबा" बनने की दास्ताँ, ये सच है की आजकल कुकुरमुत्ते की तरह जो बाबा और आश्रम नज़र आते हैं वो हमारी अंधभक्ति का ही नतीजा है और इसकी ही वज़ह से वो घृणित कार्य तक भी कर देते हैं। इसलिए भक्ति आँख, नाक, कान जैसी बाहरी ज्ञान इन्द्रियां खोल कर ही होनी चाहिए, नहीं तो "आसाराम" "रामपाल" जैसे लोग आते जाते रहेंगे।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें