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भरोसे पर हमला....


इतिहास गवाह है महिलाएँ सदियों से पुरूषों की कामातुरता का शिकार बनती आई हैं। और हमारे समाज का नजरीया हमेशा आरोपी से ज्यादा पीड़ित के प्रति असंवेदनशील रहा है। पर ऐसे समय में पाया जाता था कि मीडिया जगत उस पिड़िता के साथ है। मगर अब इस पौरूषिक मानसिकता वाले समाज में, नंगेपन की सारी सीमाएँ टूट चुकी है। आज मीडिया घराने के अंदर अब महिलाएँ सुरक्षित नहीं है। ये समय गहन आत्ममंथन का है, नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब इस सभ्य समाज में हम जानवरों की तरह रहेंगे। और जिस विश्वास पर मीडिया की सारी संरचना टिकी है, वो बनाए रखना असम्भव हो जाएगा। कल तक आसाराम को क्या-क्या ना उपमा देने वाली मीडिया, आज भी आक्रोशित है। लेकिन आज आग उसके ही घर में लगी है।
          एक पत्रकार जिसने कई ऐसे कारनामें कर रखे हैं जहाँ एक मीडिया घराने से बड़ा नाम उस व्यक्ति का है। तरूण तेजपाल जिसने रक्षा सौदा घोटाले का पर्दाफाश कर ऐसा तहलका मचाया था कि भाजपा नेता बंगारू लक्ष्मण को जेल जाना पड़ा था। उसी तेजपाल ने घिनौने-पन की सारी हदें पार कर दी। अपनी पत्रिका तहलका के थिंक फेस्ट के दौरान होटल के लिफ्ट में अपनी बेटी के उम्र की महिला रिपोर्टर के साथ यौन उत्पीड़न की कोशिश की। उस महिला पत्रकार द्वारा मामले का खुलासा किये जाने पर, तेजपाल ने खुद को महान दिखाने के चक्कर में पद छोड़ने का फैसला ले लिया। ताकि उनके साख पर लगा बट्टा मिट जाये और वे तहलका के तोप बने रहें। लेकिन एफ आई आर हो जाने के बाद वो मुकर गये, शायद उनके वकील ने सलाह दी होगी। जब किसी व्यक्ति के अच्छे काम के लिए उसे ईनाम दिया गया हो, तो उसे बुरे काम के लिए कानून संगत सजा भी मिलनी चाहिए। इससे ना सिर्फ पीड़िता को न्याय मिलेगा, बल्कि समाज का कानून पर विश्वास बना रहेगा।
                                                           परंतु इस मामले में तहलका की मैनेजिंग एडिटर शोमा चौधरी की भूमिका शर्मनांक कही जाए तो कोई ताज्जूब नहीं होना चाहिए। उसका बयान महिला की दुर्दशा की एक वजह को दिखाता है। जस्टिस वर्मा कमिटी के रिपोर्ट के अनुसार कार्य स्थल पर महिलाओं पर होने वाले यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए एक समिति का होना अनिवार्य है। लेकिन ज्यादातर मीडिया घरानों ऐसी कोई समितियाँ नहीं है।
            मौजूदा यौन उत्पीङन के मामले को लेकर मीडिया की भूमिका काफी सराहनीय कही जा सकती है। कमोवेश सारे समाचार पत्रों तथा टीवी न्यूज चैनलों ने तेजपाल प्रकरण को प्रमुखता से लिखा और दिखाया। पहली बार ऐसा एहसास हुआ कि पीड़ित से ज्यादा आरोपी कठघरे में खड़ा है। मीडिया आरोपी को माफ करने की तरफ बिल्कुल नहीं है और होना भी नहीं चाहिए, क्योंकि यहां अभद्रता, लैंगिक हिंसा के साथ-साथ प्रश्न उस विश्वसनीयता का है जिसके सहारे मीडिया का कुतुबमीनार खड़ा है।
यहां पर उस पीड़ित महिला रिपोर्टर को दाद देना पड़ेगा, जिसे अपनी नौकरी तो छोड़नी पड़ी परन्तु उसने अपनी आवाज को दबने नहीं दिया। महिला सहकर्मी के साथ अन्य पुरूष कर्मी के द्वारा यौन उत्पीड़न का ये कोई पहला मामला नहीं है लेकिन इस बार जो साहस उस महिला पत्रकार ने दिखाया है वो आने वाले दिनों के लिए एक नये अध्याय का काम करेगा।
एफआईआर दर्ज होने से पहले तेजपाल को उम्मीद थी कि पद छोड़ने की बात से मामला निपट जाएगा इसलिए उसने बहादुरी दिखाते हुए अपना गुनाह स्वीकारा था। पर मामला कोर्ट की तरफ जाता देख उसके स्वर बदल गए। अब वो सारे आरोप को बेबुनियाद बताने लगे हैं।

लेकिन इस सब के बीच आज जिस प्रकार से मानवीय मुल्यों में गिरावट देखने को मिल रहा है, उससे तो ऐसा प्रतित होता है भरोसा शब्द अब अर्थहीन हो जाएगा। उपभोक्तावादी संस्कृति जिस तरह हर क्षेत्र में अपनी जड़ें मजबूत कर रहीं है, उसके सामने सारे रिश्ते झुठे हो रहे हैं। पिता के उम्र का व्यक्ति अपनी बेटी के दोस्त के साथ यौन उत्पीड़न करने की कोशिश करता है वो भी दो बार तो संवेदना का मर्माहत होना स्वाभाविक है। कल तक कई लोग समाज में ऐसे मिल जाते थे जिसका आदर्श कोई बड़ा पत्रकार, संपादक हुआ करते थे। लेकिन इस घटना के बाद क्या कोई व्यक्ति चाहेगा कि उसका आदर्श इस तरह के व्यक्ति हो जिसका जीवन पर्दे के सामने गंगा जल की तरह तथा पर्दे के पीछे नाले के जल की तरह। ऐसे व्यक्तित्व में दोरुपियापन हमारे सभ्य समाज के लिए बड़ा खतरा है। 

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