सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

युवाओं में नशा


  • युवा मन बड़ा ही चंचल होता है, सपनों के संसार में जीना अक्सर उन्हें अच्छा लगता है। वे खुद सपने बुनते हैं और उसमें उड़ान भी भरते हैं, कभी तेज, कभी धीमें इस क्रम में वे लड़खड़ाते भी हैं। जब उसके पैर डगमगाते हैं तो उसका सामना यथार्त से होता है। यथार्त मूलतसपनों का संघर्ष है जो दिवा-रात्री की गतिविधि में निहित होता है। युवा किसी कार्य की ओर कब आकर्षित हो जाता है, उसे उस बात का तनिक भी एहसास नहीं होता। किसी को पढ़ने का भूत सवार हो जाता है तो किसी को खेलने का। कोई दोस्ती यारी का आनंद लेता है तो कोई घूमने-फिरने का। कितने प्रेम के सागर में गोते लगाते हैं तो कितने भक्ति में मग्न हो जाते हैं। यहाँ स्थिति ऐसी हो जाती है कि वे अगर एक भी दिन इन कार्यों को ना करें तो दिन गुजारना मुश्किल हो जाता है। जीवन में प्रतिदिन कुछ ऐसे काम होते हैं जिसे सम्पादित किये बिना कोई नहीं रह सकता है। परंतु एक युवा जब इन नित्य क्रियाओं के इतर किसी अमुक कार्य को अपनी नित्य क्रिया में शामिल कर लेता है, तो वो कार्य उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाती है। उस कार्य का युवा मस्तिष्क पर नशा छा जाता है। ऐसे में कुछ काम उसके लिए फायदेमंद होते हैं तो कुछ नुकसानदेह, परंतु किसी भी काम का नशा अंततोगत्वा युवा मन को एक अजीब सी कुंठा की तरफ धकेलती है।                                                                                                            यही कुंठा युवा मन को नशा के दूसरे चरण में प्रवेश कराता है। जिसे हमारा सामाज कथित तौर पर नशा कहता है, यानि गुटखा, धुम्रपान, शराब पीना आदि। ऐसे पदार्थ ग्रहण कर कुछ पल के लिए व्यक्ति अपने तंत्रिकाओं के स्पंदन को आराम पहुँचाता है। फिर उसके शरीर की पूरी तंत्र और तंत्रिकाएँ नशे की जद में आ जाती है। और मानव मस्तिष्क अपने शरीर की इच्छा का गुलाम बन जाता है।                                                                                                                 नशा के लत की शुरूआत युवावस्था में क्यों होती हैये प्रश्न विचारणीय है। चूंकि युवावस्था जीवन का ऐसा दौर होता है जहाँ स्वच्छंदता और उन्मुक्तता हृदय में समाया होता है, ये अवस्था ग्रहण करने की, सीखने की अवस्था होती है। मस्तिष्क के सारे कल-पूर्जे काफी सक्रिय होते हैं। अभिभावक भी बच्चों को इसी उम्र में खुला छोड़ते हैं ताकि वो सीखने की तरफ तेजी से अग्रसर हों। होता भी कुछ ऐसा ही है परंतु कुछ अभिभावक अपनी जिम्मेदारी से ऐसी निष्क्रियता दिखाते हैं कि उनके और युवा मन के बीच दुराव का भाव आ जाता है, और कमोवेश युवा द्वारा गलत कदम उठाने की शुरूआत यहीं से होती है।                                                                                                                         युवाओं को नशे की तरफ धकेलने में कुछ योगदान फीचर फील्मों का भी होता है। 1970-80 की दशक की बालीवुड फिल्म में नशे का चलन तम्बाकू, सिगार के रूप में खलनायकों तक सीमित था। परंतु 1990 की दशक से नायकों में भी धुम्रपान दिखाया जाने लगा। और आज की फिल्मों में तो इसे आम कर दिया गया है, बस परदे पर नीचे छोटे-छोटे अक्षरों में वैधानिक चेतावनी लिखा दिखाया जाता है- धुम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसके बाबजूद फिल्मों में जिस प्रकार से धुम्रपान को स्टेटस सिम्बल की मानसिकता के रूप में चित्रित किया जाता है, उसका युवाओं पर प्रभाव अवश्य पड़ता है। और नशा लेने की स्थिति में युवाओं को किसी प्रकार का अपराध बोध नहीं होता है।                                                                                                 सभी उम्र के लोगों को अपने हमउम्र का साथ सुखदायी लगता है, ऐसे में युवाओं की आपसी संगती स्वाभाविक है। बुरी आदतों का आपस में प्रसार यहीं से होने लगता है। देखते-देखते आदत कब जरूरत में बदल जाती है उन्हें पता भी नहीं चलता है। युवा इसके बुरे प्रभाव को जानते-समझते हैं लेकिन वो नशा छोड़ने में मजबूरी व्यक्त करते हैं। कई युवा मानने लगते हैं कि ये उनकी स्वतंत्रता का परिचायक है, और बड़ो द्वारा इसका विरोध उन्हें खटकता है। देश के बड़े शहरों में लड़कियाँ भी धुम्रपान आदि नशा का शिकार हो रही हैं। कई लड़कियाँ इसको नारी सशक्तिकरण से जोड़कर देखती हैं। परंतु इस नशा का परिणाम कितना भयावह हो सकता है ये युवा मन नहीं सोच पाता है। देश में जिस प्रकार से घरेलू हिंसा में वृद्धि हुई है, यौन अपराध की घटनाएँ घटित हो रही हैं, पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, अस्पतालों में नशा जनित मरीजों की बढ़ती संख्या इत्यादि सिर्फ और सिर्फ इन नशाओं के वजह से हो रहे हैं।                                                         युवा के साथ-साथ छोटी उम्र के किशोर में भी नशा के प्रति लगाव बढ़ रहा है। ऐसा यूं ही नहीं हो रहा है, जितना इन कृत्यों के लिए युवा का स्वच्छंद विचार जिम्मेदार है उससे कहीं ज्यादा उन्हें इस ओर धकेलने के लिए प्रायोजित तंत्र जिम्मेदार है। उनके लिए ये सब एक व्यवसाय की तरह है। इसके खिलाफ बने कानून को सख्ती से लागू करने को लेकर सरकार के साथ-साथ समाज का भी रवैया ढुलमुल है। इधर दिनों-दिन युवा मन खोखला होता जा रहा है। चंचलता नशे का गुलाम बन रही है। उत्सुकता दबी-दबी रहने लगी है। सपने अंधेरों में कहीं गुम से होते जा रहे हैं। युवाओं का शरीर तो बुलंद दिखता है परंतु उसकी आत्मा कमजोर मालूम पड़ती है। जरूरत है युवा जागरण की, अभिभावकों को अपने बच्चे से आनंदमयी प्रेम बनाए रखने की, तभी हम अपने देश के युवाओं से उम्मीद कर पायेंगे कि वो अपने सपने को हकिकत बना लेंगे।                                                                                             विवेकानन्द सिंह                                         छात्र- पत्रकारिता(आई आई एम सी)                                        

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

तस्वीरों में BHAGALPUR के धरोहर.....

भागलपुर का संस्कृति काफी समृद्ध रही है... जिसके निशान आज भी बांकी हैं।  अजगैबीनाथ मंदिर, सुल्तानगंज, भागलपुर दिगम्बर जैन मंदिर, भागलपुर.... यही वो पुण्य भूमि कही जाती है जहाँ भगवान वासुपूज्य को जैन धर्मानुसार पाँचों संस्कारों की प्राप्ती हुई थी। जैन धर्मावलम्बीयों के लिए यह मौक्ष भूमि के रूप में जाना जाता है। रविन्द्र भवन(टिल्हा कोठी) अंग्रेज काल में भागलपुर के डीएम का निवास स्थान, रविन्द्र नाथ ठाकुर अपने भागलपुर प्रवास के दौरान यहीं रूके थे और गीतांजलि के कुछ पन्ने यहीं लिखे थे। 12 फरवरी 1883 को स्थापित हुआ यह टी एन बी कॉलेज, बिहार का दुसरा सबसे पुराना महाविद्यालय है, इससे पहले एकमात्र पटना कॉलेज, पटना की स्थापना हुई है राष्ट्रीय जलीय जीव गंगेटिका डाल्फिन, 5 अक्टूबर 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में सुल्तानगंज से लेकर कहलगाँव तक के गंगा नदी क्षेत्र को डाल्फिन सैन्चुरी घोषित किया है। सीढ़ी घाट के नाम से मशहुर ये गंगा के तट का ऐतिहासिक घाट है। गंगा नदी के किनारे का मैदान  भागलपुर शहर के लगभग मध्य में स्थित "घंटाघर" ...

लघु इंसान का लोकतंत्र

नहीं है इसमें पड़ने का खेद, मुझे तो यह करता हैरान कि घिसता है यह यंत्र महान, कि पिसता है यह लघु इंसान,  हरिवंशराय बच्चन की उपरोक्त पंक्तियों में मुझे आज़ का भारतीय लोकतंत्र दिखाई देता है। कुछ ही महीनों बाद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मेला लगने वाला है। जिसमें देश की करोड़ों आवादी हिस्सा लेगी। इस मेले से लाखों उम्मीदें जुड़ी हैं शायद उस छोटे से इंसान के जीवन में कुछ परिवर्तन आएगा, लेकिन घूम-फिर कर सूई फिर उसी ज़गह-उन्हीं मुद्दों पर पहुँच जाती है, गरीबी आज़ भी व्याप्त है, आज भी देश में भूखे लोग मौज़ूद हैं, महिलाओं पर अत्याचार रूकने का नाम नहीं ले रहा है, भ्रष्ट्राचार से तो लोग हार मानते जा रहे हैं, और ऐसे में लोकतंत्र के प्रहरी ज़नता के साथ लूका-छिपी का खेल खेलें तो लगता है समस्या का निवारण आने वाली सरकार से भी संभव नहीं हो पाएगा। कहने वाले कहते हैं कि इस लोकतंत्र में एक गज़ब की छमता है यह अपने अंदर स्वशुद्धीकरण की ताकत छुपाए बैठा है। यह तर्क अब दकियानूसी लगता है क्योंकि अवसरवाद की आंधी ने सब कुछ ध्वस्त कर रखा है। हर व्यक्ति अवसरवादी होता जा रहा है। समूची दुनिया...

जगहित में है मानव का सृजन

धन दौलत ईमान नहीं है, पैसा ही एहसान नहीं है। नाम कमाना धर्म नहीं है, केवल जीना कर्म नहीं है। भरी रहस्यों से है सृष्टि, जहाँ-जहाँ जाती है दृष्टि। नील गगन में चमकते तारे, जो जल-जल कर करे ईशारे। धरती पर के फुल हमारे, रंग-बिरंगे कितने न्यारे। फुलों की मुस्कान निराली, वसुधा पर छाई हरियाली। सुबह-शाम की आँख मिचौनी, जूगनू की हर रात दिवाली। सरिता की बहकी फुलझड़ियाँ, सागर में मोती की लड़ियाँ। चला अकेला क्यों रे मानव, तोड़ सबों से प्रेम की कड़ियाँ। जीवन यह त्योहार नहीं है, जीवन यह व्यापार नहीं है। धरती पर मर-मर जीने से, जीने में कोई सार नहीं है। सरिता कल-कल करती जाती, अपनी राह बदलती जाती। जीवन का कुछ मर्म यही है, चलते जाना कर्म यही है। प्रेम का गीत बहाते जाना, जग की लाज बचाते जाना। अपना खून बहाकर भी, इस जग का रूप सजाते जाना। खाली तुम कैसे हो मानव, दिल की छोटी सी धड़कन में सपनों का संसार भरा है। विवेकानंद सिंह (छात्र:- पत्रकारिता)