पोथी पढ़-पढ़ जगमुआ, पंडित भया ना कोय, ढाई आखऱ प्रेम के पढ़े सो पंडित होय...।।
वो अपने दोस्तों के साथ मंच पर नृत्य कर रही थी और मेरी नज़र उस पर ज़ाकर टिक गई, उन सभी के बीच बस उसे ही देख पा रहा था मैं, बांकि का नृत्य कैसा था? ये मुझे नहीं मालूम, लेकिन इतना ज़रूर महसूस कर पा रहा था कि रह रह कर उसके चेहरे से जो मुस्क़ान निकलती थी, पल भर के लिए मेरी साँसें सिहर उठती थी। यह सब कुछ क्यों हो रहा था मैं कुछ भी समझ पाने में असमर्थ था। शाय़द मैं उसे पसंद करने लगा था, शायद मैं हमेशा उसके आस-पास ना रहते हुए भी उसी के बारे में सोचने लगा था, या फिर ये मेरा भ्रम मात्र था।
मैं कुछ पल के लिए बच्चा बन जाना चाहता था, ताकि उसको ज़ाकर बोल पाऊँ कि तुम नृत्य करते हुए बहुत सुन्दर लगती हो बिल्कुल अप्सरा(मेरे सपनों वाली परी) की तरह, मैं तुम्हारे हाथों का कोमल स्पर्श चाहता हूँ, तुम्हारे गले लगना चाहता हूँ, बस थोड़ा सा प्यार चाहता हूँ तुमसे। लेकिन यह संभव कहाँ था?
कभी-कभी ज़ब ऐसे ही उसके ख्य़ाल आते हैं तो मन करता है कि ख़ुद को आज़ाद कर दूँ उन तमाम तरह के बंधनों से जो मुझे विरासत के रूप में मिली हुई हैं, जब दिल करे तब उम्र की सीमा भी घटाई-बढ़ाई जा सके। जीवन पर किसी का कोई प्रभाव ना हो बस मैं उसे चाहता ही रहूँ अनवरत, लेकिन यहीं मेरे मन की चंचलता अक्सर मेरे जीभ और ओठ में उलझ कर अटक सी जाती है और मैं अपने भाव व्यक्त करने में असफल रहता हूँ, शायद यही वो वज़ह है कि मुझे ये बातें आज यहाँ लिखनी पड़ रही है।
आज़ादी मुझे प्रेम शब्द के अर्थ को समझने में मेरी मदद करती है, मुझे खोने या पाने का एहसास नहीं रह पाता है, जीने की कोशिश करता रहता हूँ लेकिन चाहत के समक्ष ख़ुद को बेबस, लाचार, निरीह और निष्प्राण महसूस करता हूँ। मर्यादा, आदर्श, संस्कार जैसे शब्द मेरे मस्तिष्क पर हेलमेट की तरह चढ़े रहते हैं जी करे तो भी मैं सावधानी हटी और दुर्घटना घटी वाली स्थिति से स्वयं को बाहर नहीं कर पाता हूँ।
बस एक बात मेरे अंदर जो मुझे अच्छी लगती है वो ये कि मैं प्रेम में स्वयं को मिटा नहीं सकता, हाँ स्वयं में प्रेम को समा अवश्य सकता हूँ। दुखी होकर अमृत कुंड में तैरने से बेहतर है कि विष की ज्वाला पीकर मुस्कराया जाये और जीवन में आने वाले असीम सुखों के स्वागत के लिए सदैव तैयार रहने की एक सफल कोशिश की जाए।
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