लोकसभा का बुखार नापता बिना पारा का थर्मामीटर........
भाई चुनाव के करीब आते ही एक दल दूसरे दल का विकेट गिराने के जुगाड़ में जुट जाता है, उत्तर प्रदेश और बिहार से इसकी शुरूआत हो चुकी है। जहाँ बिहार को देश की राज़नीति का मक्का कहा जाता है वहीं उत्तर प्रदेश को राज़नीति का कुरूक्षेत्र, इन दोनों पर फ़तह के बिना दिल्ली का स्वप्न देखना बेमानी है। बिहार राज्य ने अभी तक भले ही देश को एक भी प्रधानमंत्री ना दिया हो, लेकिन ये भी सच है कि बिहार के नेता प्रधानमंत्री बनाने और हटाने के लिए मशहूर रहे हैं।
राष्ट्रीय राज़नीति का अखाड़ा |
बिहार में गठबंधन और अवसरवाद की सियास़त पूरी उफ़ान के साथ अपने पाँव पसार रही है। राज़द के विधायकों का अभी पार्टी छोड़ना तो एक संकेत मात्र है, इसके पिछे की स्क्रिप्ट तो काफी पुरानी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पता था कि बिहार में कांग्रेस अगर राज़द से गठबंधन कर लेगी तो ना सिर्फ अगले लोकसभा चुनाव में जदयू को नाकों चने चवाने पडेंगे साथ ही उनकी सरकार भी खतरे में होगी। इस स्थिति से निपटने के लिए राज़द का विकेट गिराना बहुत ज़रूरी था, क्योंकि बिहार के मुस्लीम वोटर ही राज़द और जदयू में से किसी एक के जीत की चाभी है, उसका समर्थन इन दोनों में जिसकी ओर होगा वो बिहार को लीड करेगा।
इस भवन तक पहुँचने के लिए होता है जुगाड़ |
उपेन्द्र कुशवाहा का भाज़पा से गठबंधन महज़ संयोग नहीं बल्कि बिहार की पृष्ठभूमी में भाज़पा को पिछड़ों के वोट हासिल करने की एक कोशिश है। बिहार की तीन प्रमुख पिछड़ी जाति में यादव और कुर्मी के सर्वमान्य नेता मौज़ूद हैं लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, वहीं तीसरी जाति कोईरी में ऐसा कोई सर्वमान्य नेतृत्व वाला चेहरा न होने स्थिति में उपेन्द्र कुशवाहा भाज़पा के कुछ काम आ सकते हैं।
राष्ट्रवाद की बात करने वाली भाज़पा के नेता का बिहार पहुँच कर पिछड़ी जाति को एक मुद्दें के रूप में देखना अवसरवादी राज़नीति की ओर ही तो इशारा करती है।
खैर राज़नीति में ये सब तो चलता रहता है। आदर्शवादी बातें भाषणों और घोषणापत्रों में लिखी रह ज़ाती है, और मैदान पर सारा मामला पेंचीदा हो जाता है। भाज़पा द्वारा कुछ दलित चिंतकों को अपनी ओर करना भी दलित संवेदना को अपने पक्ष में करने की कोशिश है।
लेकिन ये सारे राजनीतिक घटनाक्रम मुझे तो आईपीएल के होने वाले ऑक्सन की तरह लग रहे हैं जहाँ प्रदेश के अनुसार नेता और पार्टियों की बोली लग रही है, जो जीत की गारंटी ना सही लम्बे-लम्बे छक्के लगाने में ज़रूर सक्षम हों।
राज़नीति और विचारधारा की राज़नीति दो ऐसे पहलू हैं जहाँ ज़नता के लिए दुविधा की स्थिति हो जाती है। आज़ सारी पार्टियाँ राज करने के लिए कोई भी नीति अपना सकती है, भले ही पाँच वर्षों तक एक-दूसरे के कामों का विरोध क्यों न किया हो, वो चुनाव के समय, या चुनाव के बाद साथ-साथ दिख सकते हैं।
अत: भारत की राजनीति में एक शानदार विचारधारा का उदय हुआ है जिसका नाम है "अवसरवाद" ये बस परिस्थितियाँ और समय के अनुसार अपने असली स्वरूप में आता है।
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