कई दिनों तक फ़ेसबुक रोया, ब्लॉगर रहा उदास
कई दिनों तक लेपटॉप सोया, जाकर उनके पास
नये विचार आये हैं, मेरे अंदर कई दिनों के बाद,
चमक उठी है मेरी आँखें, कई दिनों के बाद।। बाबा नागार्जुन की "अकाल के बाद" कविता के साथ जो छेड़छाड़ मैंने की है उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, लेकिन कई दिनों के अकालग्रस्त जीवन के बाद आज पुनः कुछ लिखने का मन कर गया है।
देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, ऐसे में बड़े-बड़े विद्वान, पत्रकार, नेता, समाजशास्त्री अपने-अपने अनुसार से देश के बनते-बिगड़ते राजनीतिक हालात पर अपनी टिप्पणी, विचार दे रहे हैं। हर बार की तरह जनता अपने दुख-दर्द से ज्यादा उन विचारों को तरजीह देगी ऐसी उम्मीद की जाती है। अब जनता क्या करेगी यह तो 16 मई को स्पष्ट हो जाएगा। मैं जो सोचता हूँ सारे देश की जनता वही सोचे यह संभव नहीं है क्योंकि स्थान, काल और दशा के हिसाब से समस्याएँ अलग-अलग है।
अब यहाँ आईआईएमसी में ही ले लिजिए यहाँ के छात्रों की समस्या अलग-अलग है लेकिन सभी का लक्ष्य एक है, वो है "सफल पत्रकार" बनना। चुनाव परिणाम को लेकर हम दोस्तों के बीच बड़ी-बड़ी बहसें होती हैं, पूरा न्यूज रूम जैसा माहौल होता है। कोई भाजपा की कमान संभाल लेता है, हाँ कांग्रेस का समर्थन करने वाले तो हैं यहाँ लेकिन उसके तरफ से बहस करने को कोई तैयार नहीं होता है। आम आदमी पार्टी की कमान संभालने वाले भी हैं, साम्यवाद की बात करने वाले भी बहस में हाथ दो-चार करने को तैयार रहते हैं। ज्यादातर लोग किसी भी विचारधारा का समर्थन करने को तैयार नहीं होते हैं।
पूरे देश के अलग-अलग प्रदेशों के छात्र आईआईएमसी में पढ़ते हैं, इसलिए कमाल-कमाल की बातें निकलकर सामने आती है। ओपेनियन पोल की तरह हमारी बहस में भी विजयी पताका मोदी के हाथ में है। बिहार के छात्रों के लिए सुशासन बाबू(नीतीश कुमार) व्यक्तिवाद के सूत्रधार स्वरूप खलनायक बन चुके हैं।
जनता सरकार चुनने के लिए अपने सांसद को देखेगी या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को, यह तो जनता ही तय करेगी, लेकिन हमारी राय में जनता को अपने सांसद को देखकर ही वोट करना चाहिए ताकि उनका बेहतर प्रतिनिधित्व हो सके।
बहस से मुझे दुख इसलिए होता है कि मुद्दों की बात कोई करता ही नहीं है। मेनिफेस्टो तो जैसे लगता है कि कॉपी पेस्ट किया गया हो।
- एक अपने द्वारा बनाए गये कानून की दुहाई देता है,
- दूसरा गुजरात के विकास का चोंगा पिटता है,
- तीसरा ईमानदार राजनीति की बात तो करता है, लेकिन उसके लिए उनके पास एक मात्र मुद्दा है जनलोकपाल,
- चौथा अपनी हार मान ले रहा है, लेकिन अपने संघर्ष को जिंदा रखने मंजिरा बजाता दिखता है.
ना तो कोई किसान के लिए योजना की बात, ना ही युवाओं के रोजगार की बात, ना ही महिलाओं को उनका हक दिलाने की बात, ना ही प्राथमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा की बात, बात की जाती है तो बस तीन देवों की जैसे तीनों में से कोई एक तो जैसे जादू कर देगा।
मैं आरोप प्रत्यारोप की बात नहीं करूँगा लेकिन क्या सच में बदलाव की तरफ देश अगर बढ़ रहा है तो वो बदलाव कैसा होगा? सिर्फ सत्ता का बदलाव होगा या देश के लोगों के जीवन में बदलाव होगा,, देश के अन्य लोगों की तरह मैं भी द्रष्टा हूँ, देख रहा हूँ कि मेरा अधिकार, मेरा वोट मुझे इस बार कितना समृद्ध करता है।
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