सोशल मीडिया ने हम जैसे इन्टरनेट भोगी लोगों को रिएक्टिव बना डाला है। जिससे हमारे रिफ्लेक्सन की छमता घटती जा रही है। हम एक दुसरे की बातों में उलझ जाते हैं। वैचारिक मतभेद अत्यावश्यक है, लेकिन आलोचना स्तरीय हो तो सुखद होता है।
रेल भाड़ा बढ़ाया जाना जरुरी हो सकता है, लेकिन सुखद कतई नहीं। जब भी कोई सरकार ऐसे निर्णय लेती है तो उसका दीर्घकालिक असर हो सकता है, लेकिन जेनेरल, स्लीपर और माल गाड़ी का किराया बढ़ना मतलब सीधे सीधे गरीब का दुःख बढ़ना।
आप भी वही उपाय करेंगे जो 10 वर्ष से कांग्रेस जन कर रहे थे तो लोग बोलेंगे ही। कुछ तो अलग करिए,
रेलवे एक ब्रांड है, और प्रधानमंत्री मोदी जी ब्रांड के महापुरुष हैं। ऐसे में कुछ तो चक्कर है इतने बड़े बढ़ोत्तरी में। देखिये इंतजार किया जाए आखिर क्या क्या बदलाव आते हैं।
प्रतिक्रिया में बहुत से सुझाव होते हैं। मेरी बात लीजिये बिहार और यूपी में अक्सर रात की यात्रा टी टी बाबा को 100 की नोट खिलाते हुए सो कर गुजर जाती है। उसपर लगाम लगे तो बहुत रेवेन्यू जेनरेट होगा।
धनबाद का तो सबको पता होगा वहां कैसे रेल के अधिकारी से लेकर गैंग मैन तक कोयला कैरिज की हेरा फेरी में शामिल हैं। ऐसे कई जगह हैं देश में, उन पर लगाम लगाओ भाई बहुत पैसा आएगा।
यहाँ चिंता एक अलग बात की है। आजादी के बाद से हमलोगों को अपने इन्डियन होने का गर्व रहा, तो हमारे सारे संस्थान में इंडियन जुड़ गया। इन्डियन रेलवे, इंडियन पोस्ट, etc. आज देश बदल रहा है, पैसे चुकायेंगे सुविधा दो वाला चलन शुरु हुआ है। ऐसे में ये इंडियन सुविधा के नाम पर बस किसी के हाथों में न चली जाये, नहीं तो फिर हो जाएगी सवारी।
क्योंकि मैं तो जिनकी चिंता में डूबा हूँ अभी तक उनको अपनी आज़ादी का इंतजार है, उनके कदम आज भी एक रोजगार नहीं तलाश पाते हैं, उनको आज भी भारत के सरकार से उम्मीद लगी रहती है, उन्हें न नेता पहचानते हैं न मंत्री, उनका क्या होगा जो रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, उनके लिए मुफ्त यात्रा का कोई प्रावधान हो तो कुछ कीजिये।
ऐसे तो सरकार कोई भी चला सकता है, लेकिन जो देश के अंतिम आदमी की चिंता करके फैसले लेगी वही सरकार लोकप्रिय सरकार हो सकती है। आपकी तारीफ़ या आपका विरोध आपके हाथ में है।
भारत माता का नारा देना, हिंदी को बढ़ावा देना, क्या है? अंतिम आदमी को खुश करने का एक प्रयास ही तो है। वरना हिंदी मीडिया के लोगों को तो पता ही होगा कि एक अदद सम्मान पाने के लिए मुख से अंग्रेजी के अस्त्र चलाने पड़ते है।
देखते हैं अगले बजट में क्या-क्या ऑफर है सरकार की ओर से, हम जैसे लोगों का ध्यान रखा जाता है या नहीं? क्योंकि हम ही है वो अंतिम आदमी. उम्मीद है सभी कह सकेंगे कि किसानों, मजदूरों, छोटी नौकरी करने वालों तथा पत्रकारों के भी अच्छे दिन आ गए।
गर नहीं आये तो, सोशल माया में लिपट के रोते रहियो, और कहते रहियो कब आयेंगे, कब आयेंगे 17 वीं लोकसभा चुनाव।।
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