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बिहार की राजनीतिक चौसर पर छिड़ेगा महायुद्ध !


बिहार कई चीजों के लिए बहुत ही मशहूर है, उनमें से एक है लिट्टी चोखा। आप बिहार में कहीं भी चले जाएं यह स्पेशल और देशी व्यंजन आपको लगभग हर जगह आराम से मिल जाएगा। लिट्टी के साथ जो चोखा बनाया जाता है वह मुख्य रूप से तीन प्रकार की सब्जियों का मिश्रण होती है, बैंगन, आलू और टमाटर। अब मुद्दे की बात करते हैं, मैं चोखा की बात इसलिए कर रहा था क्योंकि हाल के दिनों में बिहार की राजनीति में एक चोखा गठबंधन का जन्म हुआ है। तीन ऐसी अलग-अलग पार्टियां एक हुई हैं, जिनमें दो के बीच तो कल तक छत्तीस का आंकड़ा था। फिर सोचिए आखिर ऐसा क्या हुआ कि 36 का आंकड़ा पल भर में 63 में तब्दील हो गया। चूँकि पिछले लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद की राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश कुमार की जनता दल यूनाईटेड और आते-जाते नेताओं वाली कांग्रेस का जो बुरा हश्र हुआ, उसी ने 20 साल बाद एक करिश्माई अंदाज में दो बिछुड़े हुए भाईयों को एक कर दिया। साल 1994 में जब बिहार में जनता दल की सरकार थी और बिहार के मुखिया लालू प्रसाद थे, तब नीतीश कुमार ने जनता दल को छोड़कर समता पार्टी बना ली थी।


बिहार को यदि राजनीति का मक्का कहा जाए तो गलत नहीं होगा। कितना कुछ सीखा जाती है बिहार की राजनीति, अवसरवाद कहें या सुविधावाद लेकिन आस्तित्व पर जब भी कोई संकट हो तो उस समय अपने धूर विरोधी से भी हाथ मिलाया जा सकता है। राजनीति विज्ञान के फेलो को भी कभी-कभी यह समझना मुश्किल हो जाता होगा कि राजनीति का मकसद जनता की भलाई होता है अथवा कुर्सी की मलाई खाना होता है। नीतीश कुमार ने पिछले 19 मई को नैतिकता की दुहाई देते हुए बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, इसे एक अच्छा कदम कहा जा सकता है। चूँकि उनकी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने के बाद मात्र दो सीटों पर ही जीत हासिल की थी। नीतीश कुमार अक्सर अपने भाषण में समावेशी विकास की बात किया करते हैं लेकिन उनके इस समावेशी विकास को बिहार लोगों ने तब नकार दिया जब गुजरात का विकास मॉडल लेकर नरेन्द्र मोदी बिहार पहुँचे थे। बिहार में एनडीए गठबंधन को अपार सफलता मिली। अकेले भारतीय जनता पार्टी ने 22 सीटों पर विजय प्राप्त किया। पूरे भारत में माना जाता है कि बिहार की राजनीति में जातिवाद का डीएनए मौजूद है, लेकिन नीतीश कुमार ने 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन करके विकास को अपनी जीत का मूल मंत्र बताया था। आखिर उसके चार साल बाद ऐसा क्या हुआ कि उनका विकास लोगों के जेहन से गायब हो गया?


इन तीनों पार्टियों का यह चोखा मिलन बिहार में अवश्य कुछ नए गुल खिला सकता है क्योंकि लालू प्रसाद बहुत समय से पिछड़ा हृदय सम्राट की कुर्सी छोड़कर यादव हृदय सम्राट बने हुए हैं। उनके साथ नीतीश कुमार की राजनीति में भी नया ट्विस्ट जीतन राम मांझी के बिहार का मुख्यमंत्री बनने के बाद आया है, अब उनके समावेशी विकास में दलित-पिछड़ी राजनीति का युग्म प्रवेश हुआ है। अगर गौर से देखेंगे तो आपको लगेगा कि बिहार की पूरी राजनीत को बदलने वाले यह दो शूरमा लालू और नीतीश आज फिर वहीं आ गए हैं जहाँ से उन्होंने शुरूआत की थी।  जनता दल को छोड़ते समय नीतीश कुमार का आरोप था कि पार्टी में व्यक्तिवाद हावी हो गया है और लालू पूरी पार्टी को अपने हिसाब से चला रहे हैं। नीतीश कुमार के समता पार्टी के गठन और फिर शरद यादव के साथ मिलकर जदयू के निर्माण के बाद उनकी ही अपनी पार्टी पर उनका वही व्यक्तिवाद साफ दिखा। यानि जिस बात का विरोध करके उन्होंने लालू का साथ छोड़ा था, वहीं आचरण वह खुद दोहरा रहे थे।


अभी तक सांप्रदायिकता के खिलाफ अपनी राजनीति में मुस्लिम वोटरों को लुभाने का पूरजोर प्रयास करने के बाद भी जदयू को पूरी कामयाबी हाथ नहीं लग पाई। यहाँ कांग्रेस का जलवा अब भी बरकरार है, ऐसे में राजद-जदयू और कांग्रेस की तिकड़ी का पहला निशाना 10 विधानसभा सीटों के उपचुनाव पर रहेगा। यह ठीक उस पायलट ट्रेन की तरह होगी जो राजधानी एक्सप्रेस के गुजरने से पहले सुरक्षा के लिहाज से जाँच करते हुए गुजरती है। 21 अगस्त को भागलपुर, बांका, परबत्ता, छपरा, हाजीपुर, राजनगर, नरकटियागंज, मोइउद्दीन नगर, जाले और मोहिनया में विधानसभा उपचुनाव होने हैं। इसमें 4-4 सीट पर राजद और जदयू तथा दो सीट कांग्रेस को सौंपी गई है। सबसे बड़ी समस्या तो जनता के मन को भांपना है, नेता तो राजनीति में विचारधारा और व्यवहारधारा का हवाला देकर किसी भी पार्टी से समझौता और गठबंधन तो कर लेते हैं लेकिन जनता उस गठबंधन को कितना स्वीकार कर पाती है यह सारी पार्टियों के लिए कौतूहल का विषय है।


पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक की राजनीति करने वाली इन पार्टियों पर समय-समय पर किसी जाति विशेष की पार्टी बन जाने का आरोप लगा है। खास तौर पर लालू प्रसाद ने चारा घोटाला के चलते जब मार्च 2000 में अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया, तब से राजद का पूर्ण यादवीकरण होना शुरू हो गया। सत्ता पर दो भाईयों साधु यादव और सुभाष यादव की पकड़ मजबूत बन गई। जिसका नतीजा यह हुआ कि अपराध से लेकर अपहरण तक में बिहार की अलग पहचान बन गई। बिहार को जंगलराज का खिताब दिया गया। इस शासन काल में सबसे ज्यादा शोषण दलितों और अत्यंत पिछड़ों का ही हुआ। हमेशा अगड़ों पर यह आरोप लगता है कि वे दलितों और पिछड़ों का शोषण करते आए हैं लेकिन राजद के शासन में यह बात साफ हो गई कि जाति कोई भी हो ताकतवर और सत्ता के मद में चूर लोग हमेशा गरीबों की समस्या बनते हैं।


ऐसे में जिस संकल्प और शक्ति के साथ बिहार की त्रस्त और पीड़ित जनता ने जदयू और भाजपा गठबंधन को बिहार की सत्ता सौंपी थी, वह उस पर खरे भी उतरे पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी बिहार की छवि बदली। नीतीश कुमार को सुशासन बाबू कहा जाने लगा, लेकिन बीतते समय के साथ बिहार में अहंकार की लड़ाई दिखने लगी। नरेंद्र मोदी के नाम पर बिहार में भाजपा और जदयू का 17 साल पूराना साथ टूट गया। नीतीश कुमार का मानना था कि मोदी का विकास एक मुखौटा है जिसके अंदर सांप्रदायिकता का जहर है छुपा हुआ है, लेकिन जनता ने नीतीश की बात नहीं मानी और उनको एवं उनके विकास को नकार दिया।


नीतीश कुमार की कार्यशैली का जब आप आंकलन करेंगे तो पाएंगे कि उन्होंने अपनी पूरी ताकत राजद को रोकने और कमजोर करने पर लगाई थी। वह उसमें सफल भी रहे राजद बिहार में कमजोर होता गया और एनडीए मजबूत होती गई। इस बीच लालू प्रसाद बिहार में जिस तरह से यादवों के सर्वमान्य नेता माने जाते हैं, उसी तरह नीतीश कुमार ने भी कुर्मी और अतिपिछड़ों के नेता के तौर स्वीकारोक्ति हासिल कर ली। जहाँ तक पिछले लोकसभा चुनाव का प्रश्न है जाति का सारा तिलस्म हवा हो गया। इन नेताओं ने आरोप लगाए कि भाजपा के पक्ष में धार्मिक ध्रुवीकरण हुआ, लेकिन इन्हें भी एक बात बाद में समझ में आई की ध्रुवीकरण से ज्यादा इनके वोटरों में विखराव हुआ। बिहार में भाजपा, उपेंद्र कुशवहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और रामविलास पासवान की लोजपा को पिछले लोकसभा आम चुनाव में कुल मिलाकर 39 परसेंट के करीब मत मिले और उन्होंने 40 सीटों में से 31 में जीत हासिल की। दूसरी और जदयू को कुल 16 परसेंट मत प्राप्त हुए जिसमें से उनकी जीत मात्र 2 सीटों पर हो पाई एक पूर्णिया और दूसरा नालंदा लोकसभा सीट। वहीं राजद और कांग्रेस गठबंधन 28.5 परसेंट वोट मिले थे। इन तीनों पार्टियों के वोट परसेंट को जोड़कर देखा जाए तो टोटल 44.5 परसेंट हो जाते हैं जो इन्हें सुरक्षित होने का एहसास करा सकते हैं, लेकिन इन्हें पता है कि राजनीति में थोड़ी सी चूक इनकों सत्ता से बेदखल कर सकती है। पिछले दिनों लालू प्रसाद के घर हुई इफ्तार पार्टी में मीडिया के माध्यम से जो नजारा लालू के घर का था उसे देख कर लग रहा था कि वह राजद सुप्रीमों का घर न होकर जदयू के किसी नेता का घर हो। राजनीतिक शिष्टाचार और मर्यादाएं अपनी जगह हैं लेकिन सोचिए जो आदमी कल तक सारे शिष्टाचार भूलकर एक-दूसरे को भ्रष्टतम बताने से नहीं चूकते थे उनके बीच ऐसा प्रेम क्या जनता को हजम हो पाएगा?


243 सीटों वाली इस बिहार विधानसभा में 122 का जादुई आंकड़ा छुने के लिए जो संघर्ष होगा उसमें एनडीए के खिलाफ शेष पार्टियाँ मोर्चा बंदी करती दिख रही है। एनडीए में जो मौजूदा स्थिति है उसमें बात रामविलास पासवान की हो तो लोजपा के पास 4 से 5 परसेंट वोटरों का एक तबका हमेशा साथ रहा है। उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का जहाँ तक प्रश्न है उसका एक सीमित असर हो सकता है, क्योंकि उनका जो वोटर वर्ग है वह नीतीश कुमार के लिए भी सहानुभुति रखता है। बात भाजपा की करें तो फिलहाल दो चेहरे सामने दिखते हैं जिसमें विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता नंदकिशोर यादव और विधान परिषद में प्रतिपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी। 2015 का चुनाव वह इन दोनों में से किसके नेतृत्व में लड़ेगी यह अभी तक तय नहीं हुआ है।


वोटरों के मिजाज की बात करें तो बिहार का वोटर शायद दुनियां में सबसे ज्यादा उलझा हुआ प्रतित होता है। रातों-रात कब विकास की हवा बह जाए और कब जाति का समीकरण बन जाए, यह कोई नहीं जानता है और यह बिहार के वोटरों की ताकत भी है। उनकी राजनीतिक सक्रियता राजद-जदयू और कांग्रेस गठबंधन पर भारी पड़ सकती है, क्योंकि बीते नौ वर्षों में एक कार्यकर्ता के स्तर पर भी राजद और जदयू के समर्थक लोग एक दूसरे के धूर विरोधी रहे हैं। ऐसे में अगले विधानसभा चुनाव में निर्दलीय वोटकटवा के रूप कई अड़चनों का सामना तो निश्चित रूप से इस चोखा गठबंधन को करना पड़ेगा। उसका एक नमूना 21 अगस्त को होने वाले उपचुनाव में भी दिख सकता है।

भाजपा के केन्द्र में सरकार बने दो महीनें का वक्त गुजर चुका है, और मोदी को लोगों द्वारा बड़ी बहुमत देने के साथ-साथ उन लोगों उम्मीदें और आकांक्षाएँ भी छुपी हुई है। किसी आम सरकार से ज्यादा तेजी दिखाने में अगर मोदी सरकार कामयाब नहीं हुई तो बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा को खासी दिक्कत आ सकती है। जिस प्रकार लोकसभा चुनाव में भाजपा को एकतरफा जीत मिली थी वह जीत उनके हाथों से फिसल सकती है। मंहगाई आमलोगों के लिए एक ऐसा देशव्यापी मुद्दा है जिससे गरीब वर्ग प्रभावित होता है।


फिर भी बिहार की सत्ता में नहीं होने का फायदा चुनावों में भाजपा को मिल सकता है लेकिन अब उनकी राह मोदी लहर की तरह आसान कतई नहीं होगी। जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाना नीतीश कुमार का एक ऐसा कदम है जिससे दलितों के मन में नीतीश के लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर बना है। बिहार की राजनीतिक चर्चा में वाम पार्टी का नाम नहीं आना, उनके लिए थोड़ी नाइंसाफी होगी, क्योंकि जिला स्तर हो या अंचल स्तर, आज भी उसके कुछ कार्यकर्ता अवश्य मिल जाते हैं लेकिन वह कोई बड़े राजनीतिक बदलाव के वाहक बनने में अब अक्षम मालूम पड़ते हैं। एक समय था जब बिहार के बेगूसराय को लेनिनग्राद ऑफ बिहार और बांका जिला के धौरेया विधानसभा जैसे क्षेत्रों को लाल कटोरा कहके संबोधित किया जाता था। वाम पार्टियों की पूरे देश में सबसे बड़ी विफलता की वजह पर जब हम नजर दौड़ाते हैं तो वहाँ नई सोच और नए लोगों का घोर आभाव नजर आता है।
  

बिहार में आ रहे इन राजनीतिक परिवर्तनों की शुरूआत के साथ इस राजनीतिक चौसर की विसात पर कौन किसको पटकनी देगा? उसका सेमीफाइनल तो करीब है लेकिन फाइनल के लिए अभी एक वर्ष का इंतजार करना पड़ेगा। ऐसे में पल-पल में बदलती राजनीति में महायुद्ध के परिणामों पर कयास लगाने से बेहतर होगा कि नतीजा का फैसला करने के लिए जनता को छोड़ दिया जाए। जो जनता के विवेक में होगा वह नतीजा आएगा, लेकिन कुछ सवाल रह ही जाएंगे कि क्या कभी जाति का जंजाल बिहार का पीछा नहीं छोड़ेगा? सुशासन और जंगलराज का मेल किस शासन को ला सकता है?  भाजपा के पास कौन ऐसा योद्धा है जो लालू और नीतीश का सामना कर पाएगा?  यह तय है कि  समय सभी का जवाब देगी तब तक बिहार और देश के लोग बस इस चोखा गठबंधन का आनंद ही ले सकती है।
                                                विवेकानंद सिंह
ट्रेनी उप संपादक, आई नेक्स्ट(जागरण)
         कानपुर। पूर्व छात्र(आईआईएमसी)


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