भारत में जन्म लेना मेरे लिए एक गौरव का विषय
है। आप सोचेंगे कि ये लड़का तो बेकार में ही जज्बाती हो रहा है। इस देश में तो बस
कमियाँ ही कमियाँ हैं, जिधर देखो उधर भूख है गरीबी है समाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक
हर स्तर पर असमानता है। इसके बाबजूद भी मैं सच में कह रहा हूँ कि मुझे भारतीय होने
का गौरव है। किसी भी दर्शन के हिसाब से देखा जाए तो भारत के यही सारे कारण हमारे
अंदर मानवीय गुणों को बचाए रखने के लिए हमें प्रेरित करता है। यह देश अपने लोगों
को कदम-कदम पर मौके भी बहुत देता है। हालांकि ऐसा नहीं कि विश्व के अन्य देश बेकार
हैं और वहाँ के लोगों को अपने देश पर गर्व नहीं होता है। सभी को अपने-अपने देश पर
गर्व होता होगा, लेकिन मैं हूँ कि अपने देश पर गौरव होने का प्रचार कर रहा हूँ।
मेरा कहने का मतलब यह है कि जिसको भी अपने कुछ भी होने का गौरव है, तो रहे, परंतु
उसे सबको बताने की क्या जरूरत है?
जरूरत है, क्योंकि आज एक मठाधीश को इस बात की
चिंता सताने लगती है कि कल तक उसको मिलने वाला दान या चंदा अब किसी साई बाबा के
मंदिर में पहुँच जा रहा है। इसके पीछे के कारणों को जानने की जब कोशिश होती है तो
पता चलता है कि इसमें जाने-अंजाने में हुए विज्ञापन अथवा प्रचार-प्रसार की भूमिका
रही है। अब ये मठाधीश महराज जिनके लाखों लोग अनन्य भक्त हैं वो इनके लिए प्रचार और
प्रसार का काम शुरू करते हैं। यकायक धर्म पर गौरव का एहसास उमड़ पड़ता है। फिर वो
आदमी ब्रह्म की बातें करना शुरू करता है जो न तो कभी सूर्योदय को देखता है, न तो
किसी धर्मग्रंथ को पढ़ा होता है और न ही अपने देश के संविधान की भी समझ रखता है। मेरी
दादी बचपन में मुझे कहती थी कि बेटा जीवन में सारा संघर्ष रोटी का ही होता है। वो
सच ही कहती थीं, रोटी का बस समयानुसार स्वरूप बदलता जाता है।
विज्ञापन अथवा प्रचार-प्रसार को अगर आप
निर्विकार भाव से देखें अथवा पढ़ें तो आप पाएंगे की उनका लक्ष्य सबसे पहले आपके
दिमाग को खरीदना रहता है। जैसे ही उस विज्ञापन पर आप सोचना शुरू करते हैं कि उसका
मकसद पूरा हो जाता है। विज्ञापन कभी-कभी ऐसा एहसास भी देता है कि जैसे वह आपको जगा
रहा है। आप जीवन के काम से थक गए हैं और एक विज्ञापन आकर आपको हँसा, रूला या,
इमोशनल कर देता है। मैं यहाँ उन व्यापारिक और राजनीतिक विज्ञापन के संदर्भ में लिख
रहा हूँ, जिन विज्ञापनों को पूँजीवाद का अग्रदूत कहा जाता है।
आप जब एक अन्य तरीके से सोचेंगे तो पाएंगे कि
विज्ञापन ने तो इंसानी दुनिया को कितना समझदार और आसान बना दिया है। मैं एक वाक्या
बताता हूँ, मेरा भंजा जो कि दूसरी कक्षा में पढ़ता है उसका पिछले 25 अगस्त को
जन्मदिन था, वह मुंबई में रहता है। उसने 20 अगस्त को मुझे फोन किया और बोला मामा
आप मुंबई आ जाओ मेरे बर्थडे के दिन, मैंने भी उसके ही अंदाज में कह दिया हाँ मैं
पक्का 25 को मुंबई पहुँच जाउँगा। मैंने जब 25 को उसे विश करने के लिए फोन किया तो
उसने तपाक से पूछा आप तो बोले आएंगे, क्यों नहीं आए आप? मैंने कहा मैं मुबंई पहुँच गया हूँ बस
तुम्हारे पास पहुँच ही रहा हूँ। उसने कहा मामा “नो उल्लू बनाविंग” आप तो कानपुर में हो आप झूठ बोल रहे
हो।
मेरा कहने का मतलब है कि अब छोटे से छोटे बच्चे
भी इन विज्ञापनों के जरिए यह समझ जाते हैं कि उल्लू बनाना क्या होता है। यानी कि
इसके निर्माण में रचनात्मकता का मसाला इतना डाला जाता है कि ये फूल स्पाइशी हो
जाए। जब विज्ञापन के वाहन की बात होती है तो मीडिया सामने दिखता है और भारत की
मीडिया में तो विज्ञापन की महत्ता का अपना एक अलग ही रंग है। रॉबिन जेफ्री साहब
अपनी पुस्तक ‘भारत
की समाचार पत्र क्रांति’ में लिखते हैं कि भारत में विज्ञापन ऐसा लड्डू है जिसे खाओ तो भी
तरसो, न खाओ तो भी तरसो। वहीं हिन्दी पत्रकारिता के युगपुरूष प्रभाष जोशी जी लिखते
हैं कि आजकल समाचार पत्र खबरों की आढ़ लेकर विज्ञापन करने लगे हैं, जो अभिव्यक्ति
पर हमले की तरह है। वो कहते हैं कि पत्रकारों को जो सवाल पूछने या कुछ भी लिखने
आजादी मिली है वह उनकी आजादी नहीं इस देश के लोगों की आजादी है। अगर उस आजादी का
इसी तरह दुरूपयोग होता रहा तो एक दिन पत्रकारों की सारी आजादी स्वतः छीन जाएगी।
विज्ञापन और खबर के अंतर को आज बहुत हद तक सोशल मीडिया ने बेनकाब तो किया है,
लेकिन पूँजीवाद का यह अस्त्र आज भी अभिव्यक्ति के गले काटने को बेताब रहता है।
आज विज्ञापन हमें देश पर गौरव करवा रहा है,
विज्ञापन आज इंसान को शिक्षित कर रहा है, विज्ञापन आज भाषा कौशल को मजबूत कर रहा
है, और इस बात में भी कोई शक नहीं कि विज्ञापन सरकारें बना और हटा भी रहा है। यह
मेरे लोकतंत्र का महज एक विज्ञापन ही है और कुछ भी नहीं, बाकि जो सच है सो तो
हैइये है।
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