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भारतीय लोकतंत्र में न्याय के मायने

विवेकानंद सिंह

11 मई को दक्षिण भारत के दो अलग-अलग कोर्ट से दो फैसले आए, एक में तमीलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता को कर्नाटक हाई कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले में मिली सजा से उनको बरी कर दिया। वहीं दूसरी ओर खातों में हेराफेरी कर करोड़ों रुपए के घोटाले में दोषी ठहराए गए बी. रामालिंगा राजू तथा 9 अन्य को अदालत ने जमानत दे दी। आज से चार दिन पहले 8 मई शुक्रवार को कुछ ऐसा ही फैसला मुंबई की अदालत से आया था जब बॉलिवुड अभिनेता सलमान खान को हिट एंड रन केस में 13 साल बाद सजा मिलने के दो दिन बाद बिना जेल गए ही जमानत मिल गई।

यह तो भारत के न्याय का एक चेहरा मात्र है, इसके दूसरे चेहरे में वो गरीब, पीड़ित और बेबस इंसान शामिल हैं जो न्याय की चौखट पर भीख मांगते-मांगते फना तक हो जाते हैं। एक ऐसी ही दास्तां है दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर, डॉ. जी. एन. साईबाबा की जिन्हें 9 मई 2014 को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। 90 प्रतिशत तक निःशक्त व्हील चेयर पर चलने वाले इस प्रोफेसर को पुलिस की डायरी में आतंकी बताया गया है। क्या कानून और न्याय व्यवस्था की नज़र इस आदमी और इन जैसे अनेकों पर अब तक नहीं पड़ी है? क्या न्याय व्यवस्था की नज़र नेता, अभिनेता और व्यापारियों तक ही तो नहीं पहुँचकर रह जाती?

अरे मैं ये क्या कर रहा हूँ? मैं न्याय व्यवस्था पर सवाल कैसे खड़ा कर सकता हूँ? एक के बाद एक हुई इन घटनाओं पर मुझे अशोक कुमार पांडेय की लिखी कविता के बोल याद आ रहे हैं… 
जो कुछ कहना है कटघरे में खड़े होकर कहना है
जो कटघरे के बाहर हैं सिर्फ सुनने का हक है उन्हें
यहाँ से बोलना गुनाह और कान पर हाथ रख लेना बेअदबी है।

पुलिस की डायरी से शुरू होकर सर्वोच्च न्यायालय के दर तक चलने वाली इस न्याय प्रक्रिया में अन्याय की कई कहाँनियाँ चीख-चीख कर इंसाफ मांगती है, लेकिन उस आवाज को सुनने के लिए सब बहरे हो जाते हैं, उसकी पुकार को देखने के लिए सभी अंधे हो जाते हैं। आखिर सब सलमान खान तो नहीं हो सकते हैं न! ऐसा प्रतीत होता है कि कानून में तकनीकी कमियाँ छोड़ी ही गई हैं अमीरों और रसूखदारों के लिए। यह सच है कि कानून सबूत के हाथों मजबूर होते हैं, निचली अदालत में केस की फाइलें धूल फांकते-फांकते गर किसी तरह फैसले की तरफ बढ़ भी जाती है तो उपरी अदालत में गवाह, बयान और सबूत के आभाव में बेल तो मिल ही जाती है।

यह तो उन केसों का जिक्र हुआ जिनके उपर मीडिया की नज़र भी लगी रहती है, लेकिन ऐसे कई हजार केस पूरे देश में चल रहे होंगे जिसके बारे में किसी को कोई खब़र भी नहीं होती। अभी मौजूदा समय में देश की विभिन्‍न जेलों में 2.78 लाख से अधिक विचाराधीन कैदी बंद हैं। बात देश की निचली अदालतों की हो तो उनका हाल और बुरा मालूम पड़ता है। वहाँ तो पेशकारों को ही पैसे चुका कर केस की तारीखें बढ़वा ली जाती हैं। आज न्याय के मायने ही बदलते जा रहे हैं, जितने अच्छे वकील उतना ही सुलभ न्याय। बड़े-बड़े नामधारी वकील केस लड़ने में सक्षम हो अथवा नहीं हो, वे केस को मैनेज करने में उससे भी ज्यादा सक्षम होते हैं। क्राइम करने के बाद भी अगर आपके पास पैसे हैं तो आप नई-नई कहानियाँ गढ़ कर न्यायालय के समक्ष उसे प्रस्तुत कर सकते हैं, न्यायालय की मूल अवधारणा तो यही कहती है, “हजारों दोषी बच के निकल जाएँ लेकिन एक बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए।” अभी हाल के दिनों में 1987 में हुए हाशिमपुरा नरसंहार पर कोर्ट का फैसला आया जिसमें सारे आरोपी को सबूत के आभाव में बरी कर दिया गया। उनलोगों को जमानत भी फौरन दे दी गई थी।

यह भी एक सच्चाई है अमीरों के लिए जेल बस चाहरदिवारी के अंदर की जगह होती है जबकि एक गरीब कैदी के लिए जेल किसी यातना से कम नहीं होता। कई केस ऐसे पाए गए हैं जिसमें कानूनी प्रक्रिया के दौरान जेल में ही कैदी की मौत हो गई। बाद में फैसले से पता चला कि बेचारा बेगुनाह था। बड़े-बड़े जुर्म में जेल के अंदर बंद कैदी कभी पेरोल पर तो कभी जमानत पर घर की रोटियाँ तोड़ते नजर आते हैं।

जयललिता कहती हैं कि वो न्याय की भट्ठी में तपकर कुंदन की तरह पवित्र हो गई हैं और फैसले से भी तो ऐसा ही लग रहा है लेकिन एक बार अपने दिल पर हाथ रख कर पूछिए आपको कैसा लग रहा है? सच है कानून की व्यवस्था में दिल की कोई जगह नहीं है। 9 अप्रैल 2015 को 7 साल और 5 करोड़ की सजा पा चुके रामालिंगा राजू को 1 लाख के मुचलके पर जमानत मिल जाती है क्या फर्क पड़ता है कि उसने करोड़ों का भ्रष्टाचार कर रखा हो? आज समाज और देश के यथार्त की तस्वीर कुछ ऐसी ही बन रही है। जहाँ कदम-कदम पर न्याय के नाम पर अन्याय की दास्तां उभर कर सामने आ जाती है। गरीबों के पास बड़े नामी वकील रखने के लिए पैसे नहीं होते इसलिए उन्हें जमानत नहीं मिलता। यानी कि आप समझ लीजिए की पैसा बड़ा या, न्याय?

बड़े-बड़े लोग के गुनाह की खब़रें आती हैं लेकिन वो जेल नहीं जाते और जाते भी हैं तो अगले दिन बेल मिल जाती है। गरीब पुलिस से डरता है, क्योंकि वह जेल से डरता है, क्योंकि उसे न्याय की प्रक्रिया से डर लगता है, क्योंकि उसका केस महीनों-सालों यूँ ही पड़ा रह जाता है। अशोक कुमार पांडेय के उसी कविता की आखिरी पंक्तियाँ हैं…
इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया
भविष्य न्याय करेगा एक दिन
दिक्कत सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है। आज का वर्तमान कुछ ऐसा ही है जहाँ शायद इंसाफ का तराजू अमीरों, पुंजीपतियों और रसूखदारों के तरफ झुका पड़ा है।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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