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उत्तर प्रदेश की राजनीति में नीतीश कुमार इफेक्ट !

नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश की राजनीति में आखिर इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं? जिस प्रदेश में जदयू का न तो कोई संगठन रहा है और न ही राजनीतिक सक्रियता। ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री की बड़ी-बड़ी रैलियां उनकी भावी राजनीति के लिए कहीं आत्मघाती कदम, तो नहीं साबित होंगी? क्या नीतीश कुमार सच में प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी ब्रांडिंग में जुटे हैं? इन सवालों से इतर यह सवाल सभी के दिमाग में है कि नीतीश कुमार के यूपी आने का सबसे ज्यादा नुकसान किस पार्टी को होगा? नीतीश कुमार की सभाओं में आनेवाली भीड़ उनका हौसला बढ़ा ही रहा होगा. भले ही जदयू 2017 उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कोई सीट न जीत पाये, लेकिन उसकी उपस्थिति का असर जरूर होनेवाला है.

दरअसल, जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने के बाद से नीतीश कुमार की राजनीति का रुख राष्ट्रीय हो गया है. वे केंद्र सरकार की नीतियों को आड़े हाथों ले रहे हैं. उन्हें पता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. शराबबंदी के नारे के साथ, जहां नीतीश कुमार की नजर महिला वोटों पर है, वहीं उत्तर प्रदेश में उनके आने से भी कुर्मी, शाक्य, सैनी, मौर्य जैसी पिछड़ी जातियों की राजनीतिक मांग भी बढ़ गयी है. उत्तर प्रदेश के 15 से ज्यादा जिलों में ये जातियां चुनाव परिणामों में निर्णायक भूमिका निभाती रही हैं, इसके अलावा इनकी थोड़ी-बहुत आबादी बाकी पूरे प्रदेश में भी है. अगर सही मायने, में नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बनना है, तो चीजें काफी अहम होंगी. एक पार्टी के लिए अच्छी-खासी वित्तीय पूंजी की व्यवस्था, जो बड़े-बड़े कॉर्पोरेट राजनीतिक पार्टियों को फंड करते हैं और दूसरी देश की तमाम खेतिहर पिछड़ी जातियों के नेता के रूप में अपनी छवि की स्थापना करना।

नीतीश कुमार भले ही राजद-जदयू महागठबंधन की सरकार के मुखिया हैं, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में वे आगे अकेले ही पांव बढ़ा रहे हैं। उन्हें पता है कि देश में नेताओं की अच्छी या खराब की छवि में मीडिया परसेप्शन का भी बड़ा रोल होता है। भाजपा के साथ रहते हुए बिहार में नीतीश कुमार की छवि को मीडिया द्वारा एक प्रोग्रेसिव और लोकप्रिय नेता के रूप में पेश की गयी थी। लालू प्रसाद के साथ आने बाद से मीडिया ने उनको निशाना, तो बनाया। लेकिन शराबबंदी के फैसले से राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश कुमार की तारीफ हो रही है। नीतीश कुमार इस परसेप्शन का लाभ जरूर लेना चाहेंगे। 

12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क्षेत्र वाराणसी से यूपी के चुनावी दंगल में दस्तक देनेवाले नीतीश कुमार की मंशा सिर्फ भाजपा को रोकने की ही नहीं है, बल्कि नीतीश कुमार खुद उत्तर प्रदेश की राजनीति के साथ फैमिलियर होना चाहते हैं। आप देखें, तो पायेंगे कि जनता दल यूनाइटेड ने बिहार के बाद हुए पश्चिम बंगाल, असम और केरल के विधानसभा चुनावों में भी हिस्सा लिया था। यानी, कल नतीजा, जो भी भाजपा की राह में नीतीश कुमार नाम रोडब्रेक हर जगह मिलनेवाला है। सबसे खास बात है कि नीतीश कुमार की नजर जिन जाति के वोटों पर है। वह कमोवेश 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ रहे हैं। नीतीश यहीं नहीं रुकेंगे, वे आगामी गुजरात विधानसभा चुनाव में भी शरीक हो सकते हैं। वहां के पटेल समुदाय के बीच भी नीतीश कुमार बेहद लोकप्रिय हैं। अगर सूत्रों की बात मानी जाये, तो उत्तर प्रदेश में चुनावी खर्च की पूर्ति के लिए पैसे गुजरात से भी फंड के रूप में आ रहे हैं। इसका मतलब है कि गुजरात में भी एक बड़ा तबका है, जो भाजपा की हार चाहता है।
  
उत्तर प्रदेश में नीतीश छोटी-छोटी पार्टियों के साथ गठजोड़ भी कर रहे हैं. बहुजन समाज पार्टी से अलग हुए आर के चौधरी भी नीतीश कुमार की पार्टी के साथ हो गये हैं। उन्हीं के बुलावे पर नीतीश कुमार 26 जुलाई को लखनऊ में रैली करनेवाले हैं। साथ ही अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल भी नीतीश कुमार के साथ आ गयी हैं. अब तक नीतीश कुमार वराणसी, मिर्जापुर, फिर 17 जुलाई को बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के संसदीय क्षेत्र फुलपुर में अपनी सभा कर चुके हैं। नीतीश कुमार की इन सभाओं से जो खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक लोग उन्हें एकदम से नकार नहीं रहे हैं, उनकी सभाओं में अच्छी-खासी भीड़ जुट रही है। यूपी में नीतीश कुमार की स्वीकार्यता ही पार्टी के लिए बड़ी उपलब्धि है। यही वजह है कि बिहार सरकार के कई मंत्री भी वहां जोर-शोर से जनसंपर्क में लगे हैं। रैलियों के क्रम में लखनऊ के बाद नीतीश कुमार 6 अगस्त को कानपुर में भी सभा करेंगे। 

उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीति के हिसाब से देखा जाये, तो अब दलित फिर से मायावती की ओर संगठित होते दिख रहे हैं। गुजरात में दलित युवकों की पिटाई का मामला हो, या बीजेपी के नेता दयाशंकर सिंह द्वारा मयावती पर अशोभनीय व अमर्यादित टिप्पणी का मामला हो, ये चुनाव में भाजपा पर भारी पड़ सकते हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार आंबेडकर को भारतीय समाज का हीरो बता कर दलितों को अपनी ओर लाने के प्रयास में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ उनकी पार्टी के नेता उनकी सारी मेहनत पर पलीता लगा रहे हैं। अगर रूझान तथा रायशुमारी के आधार पर देखें, तो पिछड़ों में यादव व कुछ अन्य जातियां तथा अधिकतर मुस्लिम आबादी अखिलेश सरकार के परफॉर्मेंस से खुश हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद को अपनी खोयी जमीन हासिल करनी है, इसलिए वे किसी भी तरह की गलती करने के मूड में नहीं हैं।

मुलायम और माया को अंदाजा है कि नीतीश उनके वोटों की सेंधमारी नहीं कर पायेंगे। वहीं कांग्रेस संभवतः राजनीति के संक्रमण काल से गुजर रही है। उनके पास एकाएक चेहरे का घोर आभाव हो गया है। शीला दीक्षित को यूपी के लिए कांग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना, साबित करता है कि कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता में रहते हुए अपने संगठन को कितना कमजोर कर लिया? ऐसे में नीतीश कुमार का यूपी प्रवेश कुल मिला कर केंद्र सरकार के दो वर्षों से ज्यादा कार्यकाल पर सवाल खड़ा करने के लिए ही हुआ है। यहां की राजनीतिक सक्रियता का कोई दीर्घकालिक परिणाम हो-न-हो, लेकिन उन्होंने भाजपा की नाक में दम जरूर कर रखा है। लोकसभा में भारी जीत हासिल करनेवाली भाजपा को पता है कि उत्तर प्रदेश में हार का मतलब 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए उनके खिलाफ माहौल बनने की शुरुआत होगी। क्योंकि यहीं गंगा मैया भी है, तो यहीं राम मंदिर भी और केंद्र की सत्ता का रास्ता यहीं सो होकर भी गुजरता है।

- विवेकानंद सिंह

(यह लेखक के अपने विचार हैं)
(लेखक युवा पत्रकार हैं, आइनेक्स्ट, कानपुर, से पत्रकारिता की शुरुआत कर, हरितखबर में सहायक संपादक की जिम्मेवारी निभाने के बाद फिलहाल प्रभात खबर समाचार पत्र में कार्यरत हैं)

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