झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 के नतीजे आ चुके हैं और इसमें भाजपा की करारी हार हुई है। लेकिन इसके बावजूद चर्चा का बाजार गर्म है कि इस हार से झारखंड के भाजपाई व संघ के कार्यकर्ता खुश हैं। लेकिन इसमें मुझे बहुत ज्यादा सच्चाई नहीं नजर आती। क्योंकि, मुझे तो भाजपा समर्थक पत्रकारों का भी दो दिन से मन झमौन (मूड ऑफ) नजर आ रहा है। फिर कार्यकर्ता तो मैदान में खुलकर होते हैं, उन्हें खुशी कैसे हो सकती है?
हां, रघुवर दास के प्रति झल्लाहट जरूर कई लोग व्यक्त कर रहे हैं। रघुवर के खिलाफ सरयू राय ने खुलकर बगावत भी की। वे जीते भी। लेकिन रघुवर दास को सबक सिखाने के लिए पूरे झारखंड में अगर भाजपा कार्यकर्ता अपनी ही पार्टी के खिलाफ हो गये, तो यह वही वाली बात हो गयी कि चूहे से परेशान थे, तो अपने ही घर में आग लगा दी। मेरी नजर में भाजपाई इतने नासमझ तो नहीं हैं।
मेरा तो मानना है कि राज्य सरकार के रवैये से जनता में भारी नाराजगी थी। रघुवर दास की जगह यदि कोई अन्य चेहरा भी सीएम पद के लिए आगे होता तो परिणाम कमोबेश यही रहता। हां, आजसू साथ रहती तो समीकरणों के हिसाब से परिणाम में अंतर जरूर आ सकता था। अभी यह बात भी सच है कि रघुवर भाजपा की हार को छिपाने के लिए एक सॉफ्ट टारगेट हैं। स्वाभाविक है कि चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ी गयी थी। लेकिन जीत के लिए जोर लगाने का जहां तक सवाल है, भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
चुनाव आयोग की भूमिका पर मैं सवाल नहीं उठाता, लेकिन दो राज्यों (महाराष्ट्र और हरियाणा) में इससे महीने भर पहले चुनाव हुए। लेकिन झारखंड में साथ चुनाव नहीं कराये गये। यह भी चर्चा रही कि उन दोनों जगह भाजपा के लिए लड़ाई झारखंड के अपेक्षाकृत आसान होगी। लेकिन हरियाणा में जहां भाजपा बहुमत से दूर लटक गयी, वहीं महाराष्ट्र में इनके गठबंधन को बहुमत तो मिली, पर इनके जोड़ीदार राह ही भटक गये। नतीजा, यह हुआ कि भाजपा की छवि मजबूत होने की जगह कमजोर हुई। फिर, 81 सीटों वाले झारखंड में मैराथन पांच चरणों में चुनाव हुए और झारखंड ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। खैर, फिर भी झारखंड में भाजपा के 25 विधायक जीत हासिल करने में सफल रहे। यानी, 50 विधायकों के समर्थन से जहां हेमंत सरकार बनने जा रही है, वहीं उनके आधे विधायक सबसे बड़े विपक्ष की भूमिका निभाएंगे।
जेएमएम के लिए परीक्षा की घड़ी!
हेमंत सोरेन और जेएमएम के लिए यह कार्यकाल उनके राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करेगी। क्योंकि झारखंड निर्माण के 19 साल बाद उन्हें इस तरह का जनसमर्थन मिला है। यदि जेएमएम चाहती है कि भाजपा और कमजोर हो, तो उन्हें 'संकीर्णता की राजनीति को छोड़ कर व्यापकता' की राजनीति को अपनाना होगा। कई गैर आदिवासी (दिकू) जो चार पीढ़ी से भी झारखंड में ही बसे हैं, वे भी कहते हैं कि जेएमएम के झारखंडी की परिभाषा में हम शायद न आते हों। महतो (कुर्मी), मेहता (कोईरी) और यादव जैसी जातियां झारखंड में कई पीढ़ियों से रह रहे हैं। उनके भी बीजेपी के साथ जाने की बड़ी वजह जेएमएम की आदिवासी बनाम गैर आदिवासी की राजनीति रही है।
फिर हेमंत सोरेन कैसे जीत गये किला?
यह सही है कि झारखंड आदिवासी बहुल प्रदेश है। लेकिन सिर्फ आदिवासी मत से ही हार-जीत का फैसला संभव नहीं है। ऐसे में किसी भी दल को झारखंड में आज तक अकेले कभी बहुमत नहीं मिला। मुझे नहीं मालूम कि हेमंत सोरेन को ओबीसी के लिए मंडल कमीशन के तहत मिले 27 फीसदी आरक्षण के लाभ को लागू करने के दावे को एजेंडे में शामिल करने के लिए किसने कहा। लेकिन जिसने भी कहा, उन्होंने झारखंड के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को बखूबी समझा। इस मुद्दे ने हेमंत की जीत में उस पंचफोरन का काम किया, जिसके बिना सब्जी में स्वाद नहीं आता।
कांग्रेस के हाथ कैसे लगी जादू की छड़ी?
झारखंड में कांग्रेस ग्रहण काल से गुजर रही थी। गुटबाजी की हालत यह थी कि प्रदेश अध्यक्ष ही पार्टी छोड़ कर चले गये। इसके बाद कांग्रेस ने नया अध्यक्ष भी सिविल सर्वेंट कम पॉलिटिशियन को ही बनाया, साथ कई कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाये गये, ताकि सामाजिक बैलेंस बनाया जा सके। चुनाव में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष भी चुन कर विधानसभा पहुंचे हैं। यह कांग्रेस का भी झारखंड में 'सुपर से ऊपर' का प्रदर्शन है। कांग्रेस की हाथ को कई हाथों का सहारा मिल गया, कुछ हाथ भाजपाई भी थे, बाकी उनकी गठबंधन के दोनों अन्य दल साथ रहे। नतीजा, उनकी आशा से भी बढ़कर रहा। महगामा और झरिया जैसी सीट पर भी उन्होंने जीत दर्ज की, जो बीजेपी के लिए आसान सीटें मानी जाती रही हैं। यहां की जीत में अल्पसंख्यक समुदाय का भरपूर स्नेह कांग्रेस-जेएमएम-राजद गठबंधन को मिला है।
लालू प्रसाद यादव राजनीति के मास्टरमाइंड हैं!
अगर देश भर में कोई नेता अपने विपक्षी को चुटकियों में पटखनी देने में महारत रखता है, तो वह लालू प्रसाद यादव हैं। महाराष्ट्र में यदि उद्धव को सीएम बनाने में शरद पवार की भूमिका सबसे अहम रही तो झारखंड में जेल में बंद लालू प्रसाद ने हेमंत को सीएम बनाने में अहम भूमिका निभायी है। लालू प्रसाद कमजोर बस अपनों के आगे पड़ते है, अपने राजनीतिक अपोनेंट को धूल चटाने में लालू का अंदाज करिश्माई है। लालू प्रसाद की एक खासियत है कि उन्होंने बीजेपी को छोड़ कर अपने 'घोर से घोर' विरोधी को भी गले लगाया है। 2015 में बिहार में उन्होंने नीतीश कुमार के साथ मिलकर भाजपा को सबक सिखाया, तो यहां झारखंड में उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से उस सरयू राय की मदद करने का आह्वान किया, जिस सरयू राय की भूमिका उनके जेल तक जाने में रही है।
यहां तो आजकल के नेताओं के ऐसे हालात हैं कि पत्रकारों के चंद सवालों/टिप्पणियों से नेताजी नाराज हो जाते हैं। लालू प्रसाद इस मामले में अलहदा हैं। पटना में कार्यरत कार्टूनिस्ट पवन के लालू प्रसाद पर कटाक्ष किये गये कार्टून के पुस्तक का विमोचन खुद लालू प्रसाद ने किया था। उनमें ऐसे भी कार्टून थे, जिसमें लालू प्रसाद को चारा खाते भी बताया गया था। अपने इन्हीं गुणों की वजह से लालू प्रसाद राजनीति के मास्टर हैं। लालू प्रसाद के गुण उनके अवगुणों पर हमेशा 20 साबित होते रहे हैं। उन्होंने झारखंड में हॉस्पिटल से ही गठबंधन की दिशा को मजबूती दी। नतीजा सबके सामने है।
कहने का लब्बोलुआब बस इतना ही है कि झारखंड में यह सिर्फ बीजेपी और रघुवर की हार ही नहीं, बल्कि हेमंत सोरेन की जीत भी है। पूरी रणनीति के तहत ग्लोबल 'चाणक्य' को झारखंड में 'झाणक्य' बना दिया गया। बाकी जे है से हैइये है।
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