सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

क्या भाजपाई झारखंड के जनादेश से खुश हैं?

झारखंड विधानसभा चुनाव 2019 के नतीजे आ चुके हैं और इसमें भाजपा की करारी हार हुई है। लेकिन इसके बावजूद चर्चा का बाजार गर्म है कि इस हार से झारखंड के भाजपाई व संघ के कार्यकर्ता खुश हैं। लेकिन इसमें मुझे बहुत ज्यादा सच्चाई नहीं नजर आती। क्योंकि, मुझे तो भाजपा समर्थक पत्रकारों का भी दो दिन से मन झमौन (मूड ऑफ) नजर आ रहा है। फिर कार्यकर्ता तो मैदान में खुलकर होते हैं, उन्हें खुशी कैसे हो सकती है? हां, रघुवर दास के प्रति झल्लाहट जरूर कई लोग व्यक्त कर रहे हैं। रघुवर के खिलाफ सरयू राय ने खुलकर बगावत भी की। वे जीते भी। लेकिन रघुवर दास को सबक सिखाने के लिए पूरे झारखंड में अगर भाजपा कार्यकर्ता अपनी ही पार्टी के खिलाफ हो गये, तो यह वही वाली बात हो गयी कि चूहे से परेशान थे, तो अपने ही घर में आग लगा दी। मेरी नजर में भाजपाई इतने नासमझ तो नहीं हैं। मेरा तो मानना है कि राज्य सरकार के रवैये से जनता में भारी नाराजगी थी। रघुवर दास की जगह यदि कोई अन्य चेहरा भी सीएम पद के लिए आगे होता तो परिणाम कमोबेश यही रहता। हां, आजसू साथ रहती तो समीकरणों के हिसाब से परिणाम में अंतर जरूर आ सकता था। अभी यह बात भी ...
हाल की पोस्ट

आखिर कुपोषण से कब मिलेगी भारत को आजादी?

अपने देश को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा समय हो चुका है. इन वर्षों में हमने कई मामलों में काफी तरक्की की है, लेकिन 'कुपोषण' एक बदनुमा दाग की तरह देश की पहचान के साथ चिपका हुआ है. दुनियाभर में बाल कुपोषण की सर्वोच्च दरों वाले देशों में से हमारा देश 'भारत' भी शामिल है. यह जानना भी जरूरी है कि कुपोषण आखिर है क्या? दरअसल, कुपोषण एक ऐसी अवस्था है, जिसमें पौष्टिक पदार्थ और भोजन को अव्यवस्थित रूप से लेने के कारण शरीर को पूरा पोषण नहीं मिल पाता है. कुपोषण तब भी होता है, जब किसी व्यक्ति के आहार में पोषक तत्वों की सही मात्रा नहीं होती है. हम स्वस्थ रहने के लिए भोजन के जरिये ऊर्जा और पोषक तत्व प्राप्त करते हैं, लेकिन यदि भोजन में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन और खनिजों आदि पोषक तत्व नहीं मिलते हैं, तो बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं. खास बात है कि कुपोषण के शिकारों में दलित और आदिवासी परिवार के बच्चों की संख्या सर्वाधिक है. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह आज भी सामाजिक स्तर पर होने वाला भेदभाव है. किसी भी राष्ट्र को विकसित बनाने का सपना तभी पूरा हो सकता है, जब इसके नागरि...

बच्चों को उनके बचपन से न होने दें दूर !

विवेकानंद सिंह आपके सामने जब भी बचपन शब्द का जिक्र आता होगा तो पलभर के लिए आप फ्लैश बैक में जरूर चले जाते होंगे. दादी-नानी की किस्से-कहानियों की धुंधली-सी याद आंखों के आगे तैरने लगती होंगी, मन रोमांचित हो उठता होगा.  दरअसल, आज हम देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन यानी कि बाल दिवस मना रहे हैं. आप भी चाहें तो खुद के अंदर के बच्चे को भी ढूंढ़ने की कोशिश कर सकते हैं. सही मायने में उम्र जितनी छोटी होती है, संभावनाएं और सपने उतने ही बड़े होते हैं. यही कारण है कि हमें बच्चों के लिए अलग से दिवस निर्धारित करने की जरूरत पड़ गयी, ताकि कुछ देर के लिए ही सही भूत और भविष्य को ध्यान में रख कर हम वर्तमान हालात पर चर्चा कर सकें. साथ ही बच्चों को इस बात का एहसास दिलाया जा सके कि वे कितने खास हैं. कई बार यह भी विवाद का विषय बन जाता है कि हम बच्चा कहेंगे किसे? भारत की जनगनणा में 14 वर्ष से कम आयु के लड़के और लड़कियों को बच्चे की श्रेणी में रखा गया है. हालांकि, यूनाइटेड नेशंस कॉन्वेंशन ऑन द राइट ऑफ द चाइल्ड के मुताबिक, 18 वर्ष से कम उम्र की सभी लड़के-लड़कियां बच्...

डिग्री की जगह टैलेंट पर भरोसा कर हुए सफल

कई सफल स्टार्टअप्स को लीड कर रहे हैं कॉलेज ड्रॉपआउट -विवेकानंद सिंह हम अच्छी तरह से जानते हैं कि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता है. जीवन में हम सभी सफल होने के लिए कई तरह डिग्रियां हासिल करने में लगे रहते हैं, लेकिन जब डिफरेंट फिल्ड में सफल लोगों की कहानियों से हम गुजरते हैं, तो पाते हैं कि उनमें से अच्छी-खासी संख्या में कॉलेज ड्रॉपआउट या कॉलेज तक नहीं पहुंच पानेवाले छात्र शामिल हैं. आखिर सफलता और कॉलेज छोड़ने का यह क्या कनेक्शन है? साथ ही इन ड्रॉप आउट्स की कहानी उन लोगों के लिए भी प्रेरणादायी, जो अच्छे कॉलेज में दाखिला न पाने, परीक्षा में अच्छे अंक नहीं ला पाने की वजह से दुखी हैं. पढ़िए रिपोर्ट. ---------- आप रोज नये-नये स्टार्टअप्स के सफल होने की कहानियां पढ़ते होंगे. अगर आप उन पर ध्यान देंगे तो पायेंगे कि सफल होनेवाले कई ऐसे युवा हैं, जिन्होंने कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ कर अपना स्टार्टअप शुरू करने का फैसला लिया. कई लोग तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने कॉलेज का मुंह तक नहीं देखा. आगे चल कर वे अपने फैसले में न सिर्फ सफल हुए, बल्कि दुनिया के लिए एक उदाहरण बन कर उभरे. आश्चर्य की बा...

यहां सरकारी स्कूलों के 'शिक्षक' बने हैं 'मैनेजर'

विवेकानंद सिंह सरकारी स्कूलों में मिलनेवाली शिक्षा की गुणवत्ता की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। खास तौर से बिहार के सरकारी स्कूलों में काम करनेवाले शिक्षक आजकल गजब के मैनेजर बन गये हैं। हो सकता है आपको मेरी बातें थोड़ी अजीब लगे, लेकिन यह एक सच्चाई है। पढ़ाने के अलावा अपनी नौकरी बचाने के लिए व कम सैलरी को बेहतर बनाने के लिए उन्हें कई तरह से खुद को और छात्रों के अटेंडेंस को मैनेज करना पड़ता है। उन्हें हर दिन बच्चों के बिना स्कूल आये भी, उनका अटेंडेंस बनना पड़ता है। इसमें हेडमास्टर साहब (प्रधानाध्यापक) से लेकर शिक्षक भी एक-दूसरे की मदद करते नजर आते हैं। हालांकि, वे भ्रष्ट नहीं, बल्कि बस मैनेज कर रहे होते हैं, क्योंकि उनके ऊपर बैठे प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी, जिला शिक्षा पदाधिकारी का काम भी सिर्फ अपनी सैलरी से तो नहीं चल पाता है। दरअसल, वे लोग भी मैनेज कर रहे होते हैं। क्योंकि, सबसे खास बात यह है कि बच्चों के पिता खुद ही मैनेज कर रहे होते हैं। वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की चाह में अपने बच्चे को ट्यूशन देते हैं, प्राइवेट टाइप स्कूल में पढ़ने भेजते हैं, लेकिन सरकारी सिंड्रोम से ग्रस्त हो...

कैसे विकसित होगा गांवों का यह देश?

विवेकानंद सिंह, युवा पत्रकार सुबह  से ही अपने गांव की बड़ी याद आ रही है, न जाने क्यों मन बार-बार वहीं जा कर अटक-सा गया है। ईटों को जोड़ कर बनी गांव की सड़क और हरे-भरे फसलों से लहलहाते बहियारों (खेतिहर जमीनों का बड़ा समूह) के नामकरण के बारे में सोच रहा हूं। अक्सर कोई भी गांव कई बहियारों के समूह से घिरे होते हैं, जिनमें किसानों की कृषि योग्य भूमि होती है। मेरा गांव हरचंडी भी कई बहियारों से घिरा है। जिनमें चमटोली, मिलिक धमना, घोघर, बड़की बगीचा, घोराहा, डुमरी तर, बेलासी, हरचौरा, बदारी, कुशाहा, बरहमोतर आदि प्रमुख बहियार हैं। इनके अलावा भी कई छोटे-छोटे बहियार हैं। इन बहियारों का गांव से बड़ा ही करीबी रिश्ता है। सही मायने में गांव की पूरी जीडीपी इन्हीं बहियारों पर टिकी है। इन नामों पर गौर करेंगे तो आप पायेंगे कि उनका रिश्ता किसी समुदाय या फिर समूह से रहा है, जैसे चमटोली गांव से बाहर का वह हिस्सा है, जहां कभी चमार जाति के लोग रहा करते थे। वे वहां से कहां गये, उनका क्या हुआ? इसकी कोई खोज-खबर नहीं है। इसी तरह एक नाम है डुमरी तर, दरअसल इस बहियार में डुमर (गूलर) का एक बड़ा-सा पेड़ है औ...

खेल-खेल में टेक्नो फ्रेंडली बनाते खिलौने

खिलौने सिर्फ खेल या मनोरंजन के लिए नहीं होते. खिलौने तुम्हें बहुत कुछ सिखाते भी हैं. पिछले कुछ वर्षों में खिलौने के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है. आज तरह-तरह के हाइटेक खिलौनों की मदद से बच्चे टेक्नो फ्रेंडली भी बन रहे हैं. खिलौने बच्चों के अंदर प्रोग्रामिंग, डिजाइनिंग, म्यूजिक, इंजीनियरिंग जैसी प्रतिभाओ को उभारने का भी काम कर रही हैं. खास बात यह है कि आज के दौर में वैज्ञानिक और इंजीनियर्स भी किसी प्रोडक्ट को साकार रूप देने से पहले खिलौने के जरिये ही अपना परीक्षण पूरा करते हैं. इनके बारे में तुम्हें भी जानना चाहिए. विवेकानंद सिंह की प्रस्तुति. आज के दौर में टॉय इंडस्ट्री एक बड़ा बाजार बन कर उभरी है. किसी मॉल में जाओ या दुकान में वहां तुम्हें तरह-तरह के खिलौने मिलेंगे. आजकल परंपरागत खिलौनों के साथ तकनीक को जोड़ने का नया रुझान देखने को मिल रहा है. इसकी वजह से खिलौने भी काफी हाइटेक रूप में हमारे सामने आ रहे हैं. इन्हें तुम्हारी कल्पनाओं को सच करने के लिए मॉडल के रूप में भी प्रयोग किया जा रहा है. तुम्हें जान कर आश्चर्य होगा कि इन छोटे-छोटे खिलौनो को बनानेवालों में बड़े-बड़े इंजीनियर...