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फ़रवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राजनीति और अवसरवाद...

लोकसभा का बुखार नापता बिना पारा का थर्मामीटर........ भाई चुनाव के करीब आते ही एक दल दूसरे दल का विकेट गिराने के जुगाड़ में जुट जाता है, उत्तर प्रदेश और बिहार से इसकी शुरूआत हो चुकी है। जहाँ बिहार को देश की राज़नीति का मक्का कहा जाता है वहीं उत्तर प्रदेश को राज़नीति का कुरूक्षेत्र, इन दोनों पर फ़तह के बिना दिल्ली का स्वप्न देखना बेमानी है। बिहार राज्य ने अभी तक भले ही देश को एक भी प्रधानमंत्री ना दिया हो, लेकिन ये भी सच है कि बिहार के नेता प्रधानमंत्री बनाने और हटाने के लिए मशहूर रहे हैं। राष्ट्रीय राज़नीति का अखाड़ा बिहार में गठबंधन और अवसरवाद की सियास़त पूरी उफ़ान के साथ अपने पाँव पसार रही है। राज़द के विधायकों का अभी पार्टी छोड़ना तो एक संकेत मात्र है, इसके पिछे की स्क्रिप्ट तो काफी पुरानी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पता था कि बिहार में कांग्रेस अगर राज़द से गठबंधन कर लेगी तो ना सिर्फ अगले लोकसभा चुनाव में जदयू को नाकों चने चवाने पडेंगे साथ ही उनकी सरकार भी खतरे में होगी। इस स्थिति से निपटने के लिए राज़द का विकेट गिराना बहुत ज़रूरी था, क्योंकि बिहार के मुस्लीम...

झूम कर झूमा कर विदा हुआ वॉक्स पॉप..2014

दो लफ़्जों की है दिल की कहानी, या है मुहब्बत, या है ज़वानी। ये विवेक क्या गा रहा है लगता है कोई इसे भी य़ाद आ रहा है। ज़ादू कहिए, ऩशा कहिए, पागलपन कहिए या फिर प्यार ही कह लिजिए, उन बीते हुए लम्हों से जो हमें अभी भी याद आ रहा है।  वॉक्स पॉप 2014 तो चला गया लेकिन छोड़ गया है मीठी-मीठी सी यादें जिन्हें भूलने में व़क्त तो लगेगा। कल हम झूम उठे थे, आईआईएमसी का सारा कारवां झूम उठा था। आज़ पीठ दर्द कर रहा है, पैर में ज़कड़न सी महसूस हो रही है, लेकिन मुखमंडल पर मुस्कान और रात की डी जे नाईट के बोल.. गंगनम स्टाइल और ब्लू होते पानी की धून रह-रहकर कानों में अपना आभास कराती है। 22 फरवरी की शुरूआती कार्यक्रम में हेडलाइन्स टूडे के संपादक राहुल कंवल, तथा इंडिया न्यूज के राना यशवंत आये उन्होंने मीडिया में सफलता और मीडिया के मौज़ूदा हालात पर चर्चा की। इसके बाद शुरू हुआ काव्य संध्या सह मुशाय़रा, इसमें जेएनयू से आए एक से एक कवि प्रतिभागी थे। कोइ बस्तर की याद में ऩज्म पढ़ रहा था तो कोई प्रेम को सनातन और सास्वत बता रहा था। एक कवि थे जिन्होंने बुद्ध के सार को कविता के माध्यम से प्रस्तु...

आईआईएमसी वार्षिक महोत्सव...2014 आरंभ रहा प्रचंड

कलाओं को मंच मिले। सुर, संगीत और नृत्य का त्रिवेणी संगम हो, जहाँ पीयूष मिश्रा जैसे उम्दा कलाकार कर रहे हों श़िरकत, तो आरंभ को प्रचंड कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।  वॉक्स-पॉप 2014 वार्षिकोत्सव आईआईएमसी के वार्षिक मीडिया उत्सव के महा आयोज़न "वॉक्स पॉप" 2014 की शुरूआत "समाज़ के निर्माण में मीडिया की भूमिका" थीम आधारित लघु नाटिका के मंचन के साथ हुआ। इसके पश्चात् संस्थान के महानिदेशक श्री सुनीत टंडन ने दीप प्रज्वलित कर दो दिवसीय कार्यक्रम का शुभांरम्भ किया। दीप प्रज्वलित करते संस्थान के निदेशक एवं शिक्षक रंग-बिरंगे पोस्टर से पटा आईआईएमसी अपने 49वें वर्ष में युवा दिखने लगा है, वहीं दूसरी ओर आईआईएमसी के छात्र-छात्राओं तथा भिन्न-भिन्न कॉलेज से आए प्रतिभागियों के रंग-बिरंगे परिधान से ऐसा महसूस हो रहा था जैसे बगीचे में नये-नये कई रंग के फूल खिल आये हैं। पूरे आईआईएमसी परिसर में एक अज़ब सी ख़ुशहाली और उमंग का वातावरण दिख रहा था।  आईआईएमसी के कुछ छात्र-छात्राओं की हस्तनिर्मित कृति आईआईएमसी के बाहरी हिस्से में हो रहे नुक्कड़ नाटक ने ना सिर्फ आईआईएमसी के लोग...

तुम्हें जो कहना चाहता था

पोथी पढ़-पढ़ जगमुआ, पंडित भया ना कोय,  ढाई आखऱ प्रेम के पढ़े सो पंडित होय...।। वो अपने दोस्तों के साथ मंच पर नृत्य कर रही थी और मेरी नज़र उस पर ज़ाकर टिक गई, उन सभी के बीच बस उसे ही देख पा रहा था मैं, बांकि का नृत्य कैसा था? ये मुझे नहीं मालूम, लेकिन इतना ज़रूर महसूस कर पा रहा था कि रह रह कर उसके चेहरे से जो मुस्क़ान निकलती थी, पल भर के लिए मेरी साँसें सिहर उठती थी। यह सब कुछ क्यों हो रहा था मैं कुछ भी समझ पाने में असमर्थ था। शाय़द मैं उसे पसंद करने लगा था, शायद मैं हमेशा उसके आस-पास ना रहते हुए भी उसी के बारे में सोचने लगा था, या फिर ये मेरा भ्रम मात्र था। मैं कुछ पल के लिए बच्चा बन जाना चाहता था, ताकि उसको ज़ाकर बोल पाऊँ कि तुम नृत्य करते हुए बहुत सुन्दर लगती हो बिल्कुल अप्सरा(मेरे सपनों वाली परी) की तरह, मैं तुम्हारे हाथों का कोमल स्पर्श चाहता हूँ, तुम्हारे गले लगना चाहता हूँ, बस थोड़ा सा प्यार चाहता हूँ तुमसे। लेकिन यह संभव कहाँ था? कभी-कभी ज़ब ऐसे ही उसके ख्य़ाल आते हैं तो मन करता है कि ख़ुद को आज़ाद कर दूँ उन तमाम तरह के बंधनों से जो मुझे विरासत के रूप में म...

गोवा को समर्पित रहा सूरज कुंड हस्तशिल्प मेला..2014

सूरज कुंड मेला प्रवेश द्वार मेला दिलों का आता है इक बार आके चला जाता है आते हैं मुसाफ़िर जाते हैं मुसाफ़िर जाना ही है उनको क्यों आते हैं मुसाफ़िर।।........ जी हाँ मेला आकर चला जाता है लेकिन छोड़ जाता यादें, अक्सर मेला जाने के बारे में सुनकर ही युवा मन रोमांचित हो उठता है, उपर से वो दिन वेलेंटाइन डे हो तो कहना ही क्या? सूरज कुंड में प्रतिवर्ष 01फरवरी से लेकर 15फरवरी तक लगने वाले इस हस्तशिल्प मेले का 28वां वर्ष था, और इस बार मेले का थीम राज्य था "गोवा" गोवा आपका स्वागत करता है सूरज कुंड में शैक्षनिक भ्रमण के मद्देनज़र 14 फरवरी 2014 को आईआईएमसी (हिन्दी पत्रकारिता) की हमारी पूरी टोली पहुँची सूरज कुंड अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प मेला, फरीदाबाद। हमलोगों को बताया गया था कि सूरज कुंड मेले में छात्रों को प्रवेश शुल्क पर 50% की छुट मिलती है, हमलोग पहुँचे ़प्रवेश टिकट लेने तो पता चला कि कोइ छुट नहीं मिल रही है, कारण बताया गया कि छुट सिर्फ कार्यदिवस पर मिलता है, चूंकि उस दिन संत रविदास जयंती थी। लेकिन हमारी टोली बगावत पर उतर आई, भाई ये तो सरासर अन्याय है, तभी एक मेला...

जीत की स्याही....

देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, विज्ञान और कला-संस्कृति सभी में बदलाव की वयार सी चल पड़ी है। मुझे बर्फ का गोला याद आ रहा है, कैसे वह पल में अपनी शक्ल खोता है और ठोस से द्रव बन जाता है। चुनाव के करीब आते ही राजनीतिक पार्टीयाँ भी ऐसे ही अपना रूप बदलना शुरू कर देती है, यहाँ जनता के लिए दुविधा की स्थिति आ जाती है। कल देश ने जो भ्रष्ट्राचार सहा वो उसके आधार पर वोट करें या फिर खाद्य सुरक्षा, लोकपाल जैसे जनपक्षी बिल को देखते हुए वोट करें। दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव ने देश के सामने एक विकल्प दिया है जो भ्रष्ट्राचार मुक्त भारत की बात करता है, लेकिन उसके पास अच्छी राजनीति के लिए अच्छे लोगों का आभाव नज़र आता है। कोई नस्लवादी टिप्पणी करता है तो कोई अपने आप के उच्चकुलिन होने का दंभ भरता है। लेकिन गाँधी जी के स्वराज़ की परिकल्पना को हक़ीक़त में बदलने का सपना संजोये “ आम आदमी पार्टी ” ने राजनीति समर में जन्म लिया और दिल्ली के लोगों का भरपूर स्नेह भी पाया। पुरानी सारी पार्टीयाँ ये खतरा महसूस कर रही है कि उसकी ज़मीन कहीं आम-आदमी पार्टी ना हथिया ले। कांग्रेस सरकार के दस वर्ष के शासन काल में...

वो लड़की..

सागर सी सुरमयी आँखें, खुलती-बंद होती पलकें मेरे दिल में ज्वार-भाटा सी लहरें ले आ रही थी। मंद-मंद मुस्कराती वो मोवाईल पर किसी से बात कर रही थी। मेरी नज़र एकटक उसके चेहरे पर ठहर सी गई थी, मेरे कदम भी रूक गये थे वो लड़की थी ही इतनी खूबसूरत। सर से पांव तक ऐसी रचना मानो कोई मंदिर आँखों के सामने हो जिसे देखते ही मन में सुकून का भाव आ जाए। मन किया कि बोलूँ की तुम बहुत खूबसूरत हो लेकिन वो फोन पर बात कर रही थी तो मैं आगे उसके सामने से होते हुए अपने क्लास की ओर निकल गया। उस लड़की को कॉलेज में पहली बार देखा था आज, मन में कई तरह की बातें उठ रही थी उसकी सुन्दरता ने मुझे उसका दिवाना बना दिया था। क्लास में मेरे दोस्त समीर ने मुझसे पुछा कि तुमने एसाइनमेंट किया है क्या? मुझे लगा कि वो कुछ पुछ रहा है लेकिन क्या इसका कोई होश ना था। समीर ने हाथ में पेन की नोंक चुभोते हुए कहा क्या हो गया तुम्हें? कहाँ खोये हो? मुझे उसके नोंक चुभोने के दर्द का भी एहसास नहीं था, मेरी आँखों के सामने बस वो लड़की थी। समीर ने झुंझलाकर मुझे जोर से हिलाते हुए कहा तुझे किसी से प्यार तो नहीं हो गया, मेरे मुख से निकल पड़ा हाँ ...

मीडिया और मोदी मृत्युदाता....

भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार जो दे रहे हैं फल पके पकाये हुए, ये पेड़ तुमको मिले हैं लगे लगाये हुए ज़मीन ओढ़कर सोये हैं सारी दुनिया में, जाने कितने सिकंदर थके-थकाये हुए। ...'राहत इंदोरी' के इस शेर को यहाँ चस्पा करने का हमारा एक ही मकसद है कि लोकतंत्र में सिकदंर बनने की चाहत लिए कोई नेता अवसरवाद की सारी सीमाएँ लांघ सकता है। पेड़ लगाती जनता है, उसे अपने खुन-पसीने से सिंचती जनता है, लेकिन उस पेड़ में जो फल उगते हैं वो जनता की पहुँच से बहुत दुर है। हाँ यहाँ ये तथाकथित नेतागण उन फलों को लगभग पाँच वर्ष अपनी जागीर समझते हैं और चुनाव के दिन आते ही आपको फल बांटने लगते हैं। भारत की भावुक जनता के अंदर भाव हिलकोरे मारने लगती हैं। फिर सिकंदर अपनी मंशा में सफल हो जाता है, हर बार की तरह। प्रधानमंत्री और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी आज पूरे भारत में चर्चा का बाज़ार गर्म है। आखिर देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? नरेन्द्र मोदी, राहुल गाँधी या फिर कोई और...। देखते-देखते 2014 का जनवरी महिना समाप्त हो चुका है। यहाँ से तीन महीने बाद चुनाव की रणभेरी बज चुकी होगी। ऐसे में...

दुविधा में दोनों गये न समय बचा न पैसा.....

हम पत्रकारिता के छात्रों को अक्सर अपना दैनिक कार्य एक योजना के तहत करना पड़ता है, लेकिन समय और परिस्थिति के प्रभाव में सारी योजनाएँ कैसे बेकार हो जाती है?......उसी का एक अनुभव आज हमें प्राप्त हुआ। रात सर्द हो, पेट में जोरों से भूख लगी हो और हम अपनी बनाई योजना के तहत दुविधा के दोराहे पर खड़े होकर अपनी किस्मत को कोसें तो अनुभव थोड़ा खट्टा तो हो ही जाता है।  डीटीसी की नान ए सी एवं ए सी बस, भाई साहब नॉन ए सी बस में चलेंगे तो 30रू. की बचत होगी, चार दिन के द हिन्दु न्यूज पेपर की कीमत निकल जाएगी, यह बातें करते हुए हम तीनों बस स्टॉप की तरफ बढ़ रहे थे। मेरे साथ ओमप्रकाश धीरज और गोविन्द कृष्ण थे। हम तीनों सीएमएस वातावरण द्वारा आयोजित पर्यावरण फिल्म महोत्सव की रिपोर्टिंग करने इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, गये थे।  लौटते समय हम भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार बस स्टॉप पर खड़े हो गये। हमें 615 नम्बर की पूर्वांचल जाने वाली नॉन ए सी बस का इंतजार था। खड़े रहते हुए अभी मात्र पाँच मिनट ही हुए थे कि 615 नम्बर की ए सी बस आ गई, हम खुश होकर उस गाड़ी को आँखों के सामने से गुजरते ...